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________________ १२० वर्धमानचरितम् अकालमृत्युन वभूव देहिनां मनोरथानामगतिर्नकश्चन अकृष्टपच्याञ्चितसस्यशालिनी तदीयपुण्येन धरापि सा सदा ॥१५ सुखाय सर्वत्र सदा शरीरिणां ववौ तदिच्छा मनुवर्तयन्मरुत् । महीरजः क्षालनमात्रमम्बुदाः सुगन्धितोयं ववृर्षदिने दिने ॥१६ उपास्त सर्वर्तुगणो निरन्तरं निजद्रुमाणां प्रसवैश्च वीरुधाम् । समं तमन्योन्यविरोधवानपि प्रभुत्वमाश्चर्यकरं हि चक्रिणः ॥१७ सुराज्ञि यस्मिन्परिपाति मेदिनीमनूनवृत्तेषु समुन्नतात्मसु।। मृगेक्षणानामुरुयौवनश्रियां कुचेषु काठिन्यमभूच्च सोष्मता ॥१८ अवाप्तसाधुश्रवणेषु सातिं दधत्सु कान्ति धवलेषु केवलम् । परिप्लवत्वं नयनेषु योषितामलक्ष्यतान्तर्मलिनत्वमप्यलम् ॥१९ सदान्तरार्देषु धरासु वर्षणाद्रजो विकारप्रसरापहारिषु । अजायताभ्रेषु विचित्ररूपता निरर्थक गजितमप्यकारणम् ॥२० उसके पुण्य से प्राणियों की अकाल मृत्यु नहीं होती थी, कोई भी मनुष्य मनोरथों का अगति नहीं था तथा पृथिवी भी सदा विना जोते हुए प्राप्त होने वाली उत्तम धान्य से सुशोभित रहती थी ॥१५॥ सब स्थानों पर सब समय प्राणियों के सुख के लिये त्रिपृष्ट की इच्छा के अनुसार वायु बहती थी और मेघ प्रति दिन मात्र पृथिवी की धूलि को धोने वाले सुगन्धित जल की वर्षा करते थे॥१६॥ परस्पर के विरोध से युक्त होने पर भी समस्त ऋतुओं का समूह अपने वृक्षों और लताओं के पुष्पों द्वारा एक ही साथ उसकी उपासना करता था सो ठीक ही है क्योंकि चक्रवर्ती का प्रभुत्व आश्चर्य कारी होता ही है ॥१७॥ उस उत्तम राजा के पृथिवी का पालन करने पर काठिन्य-कठोरता और सोष्मता-उष्णता से भरपूर यदि था तो प्रगाढ यौवन से सुशोभित मगनयनी स्त्रियों के अनून वृत्त-स्थूल और और गोल तथा समुन्नतात्मा-उत्तुङ्गाकार स्तनों में ही था वहाँ के अनून वृक्ष-उत्कृष्ट चारित्र से युक्त तथा उदाराशय मनुष्यों में काठिन्यनिर्दयता और सोष्मता-अहंकार से परिपूर्ण नहीं था ॥ १८ ॥ जिन्होंने साधुश्रवण-उत्तम कानों को प्राप्त किया था, अर्थात् जो कानों तक लम्बे थे, जो सायति-लम्बाई से सहित कान्ति को धारण करते थे तथा जो धवल-निर्मल थे ऐसे स्त्रियों के नेत्रों में ही है चञ्चलता तथा भीतर की अत्यधिक मलिनता-श्यामलता दिखाई देती थी वहाँ के उन मनुष्यों में जिन्होंने कि समीचीन शास्त्रों का श्रवण प्राप्त किया था अर्थात् जो उत्तम शस्त्र सुना करते थे, जो सायतिउत्तर काल-सुन्दर भविष्य काल से सहित् कान्ति का धारण करते थे, तथा स्वभाव से धवल-निर्मल थे, चञ्चलता और अन्तरङ्ग का कलुषितता नहीं दिखाई देती थी ॥१९॥ जो सदा अन्तरङ्ग से आर्द्र रहते थे तथा पृथिवी पर वर्षा करने से जो धूलिविकार के समूह को दूर करने वाले थे ऐसे मेघों में ही विचित्ररूपता-नाना आकृतियों को धारण करना, तथा कारण के विना निरर्थक गर्जना भी पाई जाती थी किन्तु वहाँ के उन मनुष्यों में जोकि सदा अन्तरङ्ग से दयालु थे, और धर्मामृत को वर्षा पाप विकार के समूह को दूर करने वाले थे, विचित्ररूपतानानारूप बनाना और कारण के बिना ही निष्प्रयोजन गर्जना-बहुत बकवाद करना नहीं पाया १. काचन ब० । २. परिष्कृताः ब०।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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