________________
नवमः सर्गः
१२१
अलङ्घनीयस्थितिमत्सु भूतले प्रशस्तवंशेषु वहत्सु तुङ्गताम् । धराधरेष्वेव सदा विपक्षिता बभूव दुर्मार्गगतिश्च निश्चिता ॥२१ अनूनसत्त्वा बहुरत्नशालिनो महाशया धीरतया समन्विताः। सुदुःप्रवेशां स्थितिमूहुरथिनां प्रसिद्ध दुहितयाम्बुराशयः ॥२२ कलाधरेषु क्षणदाकरेऽभवन्प्र'दोषसङ्गक्षयवृद्धिवक्रताः । महोत्पले श्रीनिलयेषु च क्षितौ जलस्थितिमित्रबलाद्विजृम्भणम् ॥२३ सुविप्रियश्चारुफलेषु पादपो मधुप्रियोऽलिः सुमनोऽनुवतिषु । दुरासदोऽभूदहिरेव भोगिषु स्फुरद्विजिह्वात्मतया मनीषिभिः ॥२४
जाता था ॥२०॥ जो पृथिवीतल पर अलङ्घनीय थे-लाँघने योग्य नहीं थे, प्रशस्त वंश थे-जिन पर बांसों के उत्तम वृक्ष लगे हुए थे तथा जो ऊँचाई को धारण कर रहे थे ऐसे पर्वतों में ही विपक्षिता-पङ्खों का अभाव था तथा निश्चित रूप से दुर्गिगति-ऊँचे-नीचे खोटे मार्ग में गमन करना पाया जाता था किन्तु वहाँ के उन अन्य मनुष्यों में जो आदरणीय मर्यादासम्पन्न थे, प्रशस्त वंश-उच्च कुलीन थे तथा तुङ्गता-उदारता को धारण करते थे, विपक्षिता विरोध तथा दुर्गिगतिता-खोटे मार्ग में चलना-दुराचरण नहीं पाया जाता था ॥२१॥ अननसत्त्व जिनमें बड़े-बड़े जोव जन्तु थे, बहुरत्नशाली–जो बहुत रत्नों से सुशोभित थे, अत्यन्त विस्तृत थे और गहराई वाले थे ऐसे समुद्र ही प्रसिद्ध तथा दुष्ट मगरमच्छ आदि ग्राहों से युक्त होने के कारण अभिलाषी मनुष्यों के लिये अत्यधिक कठिनाई से प्रवेश करने के योग्य स्थिति को धारण करते थे किन्तु वहाँ के वे मनुष्य, जो अनूनसत्त्व-प्रबलपराक्रमी थे, बहुरत्नशाली–जो सम्यग्दर्शनादि रत्नों से सुशोभित थे, महाशय-उदार अभिप्राय वाले थे, और धीरता-गम्भीरता से यक्त थे, प्रसिद्धदुहिता-वशीकरण की अशक्यता के कारण याचकों के लिये अत्यन्त दुःप्रवेश नहीं थे अर्थात् उनके समोप याचकों का प्रवेश करना कठिन नहीं था ॥२२॥ कलाधरों-कला के धारकों में यदि प्रदोषसङ्ग-रात्रि के प्रारम्भ भाग का समागम, क्षय-कृष्ण पक्ष में कलाओं का क्षय होना, वृद्धि-शुल्क पक्ष में कलाओं की वृद्धि होना और वक्रता –कुटिलता ये सब वस्तुएँ यदि थीं तो चन्द्रमा में ही थीं वहाँ के कलाधारी मनुष्यों में प्रदोषसङ्ग–अत्यन्त दोषी मनुष्यों का संसर्ग, क्षय-सद्गुणों का ह्रास, वृद्धि-असद्गुणों की वृद्धि और वक्रता-मायाचारिता ये सब गुण नहीं थे। इसी प्रकार पृथिवो में यदि जडस्थिति-जल में स्थिति–निवास था तो महोत्पल -कमल में ही था वहाँ के मनुष्यों में जडस्थिति-मूों की स्थिति नहीं थी तथा मित्रबल-सूर्य के बल से यदि विज़म्भण-विकास था तो श्रीनिलय-कमलों में ही था अर्थात् कमल ही सूर्य के बल से विकसित होते थे वहाँ के मनुष्यों में मित्रबल-मित्रों के बल से विजृम्भण-संपत्ति आदि का विस्तार नहीं था किन्तु अपने पुरुषार्थ से था ॥२३॥ सुन्दर फल वाले पदार्थों में यदि कोई सुविप्रिय-पक्षियों के लिये अत्यन्त प्रिय था तो वृक्ष हो था वहाँ का कोई मनुष्य सुविप्रियअत्यन्त विरुद्ध नहीं था। सुमनोऽनुवर्ती-फूलों का अनुसरण करने वालों में यदि कोई मधप्रिय१. भवत् म० । २. वक्रता म० ।
१६