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________________ नवमः सर्गः ११९ यथावदापृच्छय ततः प्रजापति नभश्चरेन्द्रस्य पुरैव पादयोः । पपात सम्राट् सह सीरपाणिना सतां हि लक्ष्म्या विनयो वितीर्यते ॥८ प्रणामपर्यस्तकिरीटकोटिना निपीडयन्तं चरणाम्बुजद्वयम् । मुर्दार्क कीति परिरभ्य तावुभौ स्वतेजसा तं विससर्जतुः समम् ॥९ ययौ तनूजामनुशिष्य पद्धति परां सतीनां सह वायुवेगया। प्रमृज्य तच्चक्षुरुदश्रुपाणिना नभश्चरेन्द्रो मुहुरात्मनोऽप्यसौ ॥१० नरेश्वरैः षोडशभिः समन्वितो हरिः सहस्रैः कमनीयमूर्तिभिः । वधूभिरप्यष्टसहस्रसम्मितैः सुरैश्च नित्यं विरराज किङ्करैः ॥११ निरीक्ष्य साम्राज्यमिति प्रजापतिः सुतस्य तस्य स्वमनोऽनुवर्तिनः । स्वबन्धुवर्गः सह पिप्रिये परं मनोरथेभ्योऽप्यतिरिक्तभूतिभिः ॥१२ स भूपतीनां च नभोविलविना नखप्रभाली मुकुटेषु पादयोः । दिगन्तरेष्विन्दुमरीचिनिर्मलां निधाय कीतिं च शशास मेदिनीम् ॥१३ स्वपादनम्रान्सचिवस्य शिक्षया सपत्नबालानवलोक्य केशवः । परानुकम्पामकरोद्दयार्द्रधीर्दयालवो हि प्रणतेषु साधवः ॥१४ वाले आप सब विद्याधरोंका यह ज्वलनजटी स्वामी है, आदर से इसी की आज्ञा धारण करो यह कह कर त्रिपृष्ट ने यथाक्रम से सम्मानित कर ज्वलनजटी के साथ समस्त विद्याधरों को छोड़ाकरविदा किया ॥ ७ ॥ तदनन्तर राजा प्रजापति से पूछ कर त्रिपृष्ट ने बलभद्र के साथ सर्वप्रथम विद्याधराधिपति ज्वलनजटी के चरणों में प्रमाण किया सो ठोक ही है क्योंकि सत्पुरुषों की लक्ष्मी विनय को ही प्रदान करती है ॥ ८ ॥ प्रणाम के लिये झुके हुए मुकुट के अग्रभाग के चरणकमलयुगल को पीड़ित करने वाले अर्ककीति का हर्ष से आलिङ्गन कर बलभद्र और नारायण ने उसे अपने तेज के साथ विदा किया। भावार्थ-ज्वलनजटी के पुत्र अर्ककीर्ति ने जाते समय विजय और त्रिपृष्ट दोनों के चरणों में शिर झुका कर नमस्कार किया तथा दोनों ने हर्षपूर्वक आलिङ्गन कर उसे विदा किया । अर्ककीति के माध्यम से इनका तेज विद्याधरों के निवासक्षेत्र में विस्तृत हुआ था ॥ ९ ॥ विद्याधरों का इन्द्र ज्वलनजटी अपनी पुत्री को सती स्त्रियों की श्रेष्ठपद्धति का उपदेश देकर तथा अपनी स्त्री वायुवेगा के साथ, उसके अश्रुपूर्णनेत्रों को अपने हाथ से बार-बार पोंछ कर चला गया ।। १० । सोलह हजार राजाओं, आठ हजार सुन्दर स्त्रियों तथा किङ्करता को प्राप्त हुए अनेक देवों से युक्त त्रिपृष्ट नारायण नित्यप्रति सुशोभित होने लगा ॥११॥ इस प्रकार राजा प्रजापति अपने मन के अनुकूल चलने वाले उस पुत्र के साम्राज्य को देख कर मनोरथों से भी अधिक विभूति के धारक अपने बन्धुओं के साथ अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ १२ ॥ वह त्रिपृष्ट, पैरों के नख-सम्बन्धी कान्ति के समूह को राजाओं तथा विद्याधरों के मुकुटों पर और चन्द्रमा की किरणों के समान निर्मल कीर्ति को दिशाओं के बीच स्थापित कर पृथिवी का शासन करने लगा ॥ १३ ॥ दया से आद्र बुद्धिवाले नारायण ने मन्त्री की शिक्षा से अपने चरणों में झुके हुए शत्रओं के बच्चों को देख कर उनपर बहत भारी दया की सो ठीक ही है क्योंकि सत्पुरुष नम्रजनों पर दयालु होते ही हैं ॥१४॥ उस समय १. शिरसा पदद्वये म० । २. स्वचेससा म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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