SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० वर्धमानचरितम् खेचरैः कवचितैरुवायुधैरन्वितो धृततनुत्रभासुरः । सार्वभौममधिरा निर्ययावग्रतः शिखिजटी मदच्युतम् ॥७४ दानिनं विपुलवंशमूजितं शिक्षया पटुमभीरुमुन्नतम् । अर्कोतिरिभमात्मनः समं दंशितो व्यलगदाजिलम्पटः ॥७५ वज्रसारमिदमेव मद्वपुर्दशनेन किमिति प्रतिक्षणम् । वर्म नीतमपि सत्पुरोधसा निर्भयेन विजयेन नाददे ॥७६ कुन्दवीध्रतनुरञ्जनत्विषं कालमेघमिभमुन्मदं बलः । राजति स्म नितरामधिष्ठितः कालमेघमिव पूर्णचन्द्रमाः ॥७७ रक्षितुर्भुवनमण्डलस्य मे रक्षणे सति कथं नु पौरुषम् । इत्यभीररभिमानगौरवान्नोमुचत्कवचमादिकेशवः ॥७८ शारदाम्बरसमद्युतिर्महावारणं हिमगिरि हिमत्विषम् । अध्यतिष्ठदुरगारिकेतनो राजताद्रिमिव नीलनीरदः ॥७९ तं परीत्य सकलाः समन्ततो देवता, विधृतचित्रहतयः । तस्थुरम्बरतले परंतपं प्रातरर्कमिव दीप्तिसंपदः ॥८० ऐसे राजा प्रजापति, शीघ्र ही तैयार किये गये सर्वमङ्गलमय हाथी पर सवार हुए ॥ ७३ ॥ जो कवच से युक्त तथा शस्त्रों को धारण करनेवाले विद्याधरों से अनुगत था, और धारण किये हुए कवच से देदीप्यमान था ऐसा ज्वलनटी सार्वभौम नामक मदस्रावी हाथी पर सवार हो सबसे आगे निकला ॥ ७४ ॥ युद्ध का अभिलाषी अर्ककोति कवच से युक्त हो अपने ही समान हाथी पर अधिष्ठित हुआ। क्योंकि जिस प्रकार अर्ककीर्ति दानी त्याग करने वाला था उसी प्रकार हाथी दानी-मद से युक्त था, जिस प्रकार अर्ककीर्ति विपूलवंश-उत्कृष्ट कूल सहित था उसी प्रकार वह हाथी भी विपुलवंश-पीठ की लम्बी-चौड़ी हड्डी से युक्त था, जिस प्रकार अर्ककीर्ति अजित बलशाली था उसी प्रकार वह हाथी भी अजित बलशाली था, जिस प्रकार अर्ककीर्ति शिक्षा से समर्थ, भयरहित और उन्नत-उदार था उसी प्रकार वह हाथी भी शिक्षा से समर्थ, भयरहित और ऊँचा था ॥७५।। मेरा यह शरीर ही वज्र का सार है इसलिये प्रत्येक समय कवच धारण करने से क्या प्रयोजन है ? यह कह कर निर्भय विजय ने पुरोहित के द्वारा दिये हुए भी उत्तम कवच को ग्रहण नहीं किया ॥७६। जिसका शरीर कुन्द के फूल के समान शुक्ल था, ऐसा बलभद्र विजय, अञ्जन के समान कान्तिवाले कालमेघ नामक मत्त हाथी पर बैठा हआ, कृष्ण मेघ पर आरूढ़ पूर्ण चन्द्रमा के समान अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥७७।। भवनमण्डल का रक्षक होने पर भी मेरी रक्षा के लिये यदि कोई वस्तु अपेक्षित है तो इसमें मेरा पौरुष क्या हुआ ? इस प्रकार निर्भय रहनेवाले प्रथम नारायण त्रिपृष्ठ ने अभिमान के गौरव से कवच को धारण नहीं किया था ॥७८॥ शरद्-ऋतु के आकाश के समान कान्तिवाला त्रिपृष्ठ, वर्फ के समान कान्तिवाले हिमगिरि नामक महागज पर इस प्रकार आरूढ़ हुआ जिस प्रकार कि रजतगिरि पर श्यामल मेघ आरूढ़ होता है ॥७९॥ जिस प्रकार प्रातःकाल के सूर्य को घेर कर आकाश में उसकी १. भवनमण्डलस्य म० । २. दामुचत् म० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy