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________________ अष्टमः सर्गः आबभौ गुणविनम्रमुन्नतं भङ्गवजितमनिन्द्यवंशजम् । कश्चिदेत्य धनुरात्मनः समं न श्रिये किमनुरूपसंगमः ॥६७ सत्वरं जवमितानधिष्ठिता वर्मिता हरिणरंहसो हरीन् । प्राभासुरकरा निषादिनो मेनिरे सफलमात्मदौर्हृदम् ॥६८ युक्तयुग्यतुरगाः सकेतनाः स्यन्दना विधृतचित्रहेतयः । धूर्गतेः कवचितैस्तु निन्यिरे स्वामिवासभवनाजिरं प्रति ॥६९ आत्तचित्रकवचा यशोधना बिभ्रतोऽभिमतमस्त्रमात्मनः । भूभृतामभिमुखं त्वरावतां तस्थुराहवरसोद्धता भटाः ॥७० अङ्गरागसुमनोऽम्बर। विभिः पूर्वमेव निजसेवकान्नृपाः । आत्महस्तकमलैरपूजयँस्तद्धि मारयति तान्न चापरम् ॥७१ निर्ययुर्बहलगैरिकरुणा संध्ययान्वितघनानुकारिणः । दन्तिनो धृतवधावध क्रियैर्वीरयोधपुरुषैरधिष्ठिताः ॥७२ बद्धचारुकवचैर्महाभटैर्वेष्टितः प्रहतसामरानकः । आरुरोह करिणं प्रजापतिः कल्पितं सपदि सर्वमङ्गलम् ॥७३ ९९ ने प्राप्त हुआ हाथी यद्यपि दुगुनी उन्मत्तता को धारण कर रहा था तो भी नीतिज्ञ महावत शीघ्र ही उस पर पलान रख दिया सो ठीक ही है क्योंकि कुशल मनुष्य क्षोभ के समय भी मूढ नहीं होता है ॥ ६६ ॥ कोई योद्धा गुण विनम्र — डोरी से झुके हुए ( पक्ष में दया - दाक्षिण्यादि गुणों से नम्रीभूत) उन्नत – ऊँचे ( पक्ष में उदाराशय, भङ्गवर्जित - विनाश से रहित (पक्ष में पराजय से दूर तथा अनिन्द्यवंशज - उत्तम बाँस से उत्पन्न (पक्ष में उच्चकुलीन, अपने समान धनुष को प्राप्त कर सुशोभित होने लगा सो ठीक ही है क्योंकि समान का संयोग क्या लक्ष्मी के लिये नहीं होता ? अर्थात् अवश्य होता है ।। ६७ ।। जो शीघ्रता से युक्त वेग को प्राप्त तथा हरिणों के समान वेगवाले घोड़ों पर बैठे थे, कवच धारण किये हुए थे, तथा जिनके हाथ भालों से देदीप्यमान थे ऐसे घुड़सवार अपने मनोरथ को सफल मानने लगे ।। ६८ ।। जिनमें जुएँ को धारण करनेवाले अच्छे घोड़े जुते हुए थे, जो पताकाओं से संयुक्त थे तथा जिनमें नाना प्रकार के शस्त्र भरे हुए थे युक्त सारथियों के द्वारा अपने स्वामियों के निवासगृह के आँगन की ओर ले जिन्होंने नाना प्रकार के कवच पहिन रक्खे थे, यश ही जिनका धन था, जो धारण किये हुए थे तथा जो युद्ध के रस से उदण्ड हो रहे थे ऐसे योद्धा शीघ्रता करनेवाले राजाओं के सम्मुख खड़े हो गये ॥ ७० ॥ राजाओं ने पहले ही अपने सेवकों को अङ्गराग, पुष्प तथा वस्त्र आदि से सम्मानित किया था सो ठीक ही है उन्हें मरवाता है अर्थात् प्राण न्यौछावर करने के लिये तैयार करता है जो अत्यधिक गेरू से लाल होने के कारण सन्ध्या से युक्त मेघों का अनुकरण कर रहे थे तथा जिन पर मारामार मचानेवाले वीर योद्धा पुरुष बैठे थे ऐसे हाथी बाहर निकले ।। ७२ ।। जो सुन्दर कवचों से युक्त बड़े-बड़े योद्धाओं से घिरे हुए थे तथा जिनके आगे युद्ध का नगाड़ा बज रहा था ऐसे रथ, कवचों से जाने लगे ॥ ६९ ॥ अपने इष्ट शस्त्र को अपने करकमलों द्वारा क्योंकि वह सम्मान ही अन्य कुछ नहीं ॥ ७१ ॥ १. म पुस्तके ७०-७१ श्लोकयोः क्रमभेदो वर्तते ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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