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________________ ९८ वर्धमानचरितम्ं उन्नतं दशशतारसंयुतं साधिताखिलनरेन्द्रखेचरम् । तस्य चक्रमरिचक्रमर्दनं किं न वेत्सि पुरुपुण्यसंपदः ॥५९ [ युग्मम् ] व्याहरन्तमिति दूतमुद्धतं तं निवार्य पुरुषोत्तमः स्वयम् । तस्य नोऽपि निकष राहते नान्य इत्येमुचवाजिनिश्चयः ॥ ६० तस्य सान्नहनिकोऽथ वारिज: शाङ्खिकेन नदति स्म पूरितः । आज्ञया प्रतिनिनादिताखिलक्ष्माभृदीशकटको रुगह्वरः ॥६१ केकिनां जलभरानताम्बुदध्वानशङ्किमनसां सुखावहः । व्यानशे समरपुष्करध्वनिर्दिङ्मुखानि सुभटान्प्रबोधयन् ॥ ६२ सर्वतो जयजयेति सैनिकास्तदृवन समभिनन्द्य वन्दिभिः । स्तूयमाननिजनामकीर्तयः प्रारभन्त रभसेन दंशितुम् ॥६३ गच्छति प्रधनसम्म बोदयात्स्फीततां वपुषि चेतसा समम् । कश्चिदात्मकवचे न सम्भमौ तानितेऽपि मुहुरात्मकिङ्करैः ॥६४ लोहजाल मलिनीलमुद्वहन् लालयन्नसिलतां स्फुरत्प्रभाम् । कश्चिदाप समतां तद्वितो भूगतस्य नववारिवाहिनः ॥६५ वारणे कलकलाकुलीकृते क्षीवतां द्विगुणमुद्वहत्यपि । शारिमाशु नयविन्न्यवेशयत्संभ्रमेऽपि कुशलो न मुह्यति ॥६६ व्याप्त हो रही हैं, यक्ष जिसकी रक्षा करते हैं, जो अविनाशी हैं, जिसका तुम्ब - अरों का आधार है, जो सूर्यबिम्ब के समान देदीप्यमान है, ऊँचा है, एक हजार अरों से युक्त है, जिसने समस्त राजाओं और विद्याधरों को वश में कर लिया है तथा जो शत्रुसमूह का मर्दन करनेवाला है ऐसा उस विशाल पुण्यशाली का चक्ररत्न है, क्या तुम नहीं जानते ? ।। ५८-५९ ।। इस प्रकार कहते हुए उस उदण्ड दूत को युद्ध का निश्चय करनेवाले नारायण ने स्वयं रोककर यह कहते हुए विदा किया कि उसको और हमारे बीच युद्ध के सिवाय दूसरी कसौटी नहीं है ।। ६० ।। तदनन्तर उसकी आज्ञा से शङ्खाधिकारी के द्वारा फूखा हुआ युद्धसूचक शङ्ख शब्द करने लगा । उस शङ्ख के शब्द ने समस्त राजाओं के कटकरूपी विशालगत को अपनी प्रतिध्वनि से गुञ्जित कर दिया था ।। ६१ ।। जल के भार से विनत मेघ गर्जना की शङ्का करनेवाले मनों से युक्त मयूरों को सुख पहुँचाने वाला रणभेरी का शब्द सुभटों को जागृत करता हुआ दिशाओं में व्याप्त हो गया ।। ६२ ॥ रणभेरी के शब्द का अभिनन्दन करते हुए जो सब ओर 'जय जय' इस प्रकार का शब्द कर रहे थे तथा वन्दीजन जिनके नाम और सुयश की स्तुति कर रहे थे ऐसे सैनिक लोग वेग से कवच धारण करने के लिये तत्पर हो गये ।। ६३ ।। किसी सुभट का शरीर उसके चित्त के साथ युद्ध - सम्बन्धी हर्ष का उदय होने से इतना अधिक विस्तृत हो गया था कि अपने किङ्करों के द्वारा बारबार ताने गये भी अपने कवच में वह नहीं समा सका था ।। ६४ ।। भ्रमर के समान काले लोह के कवच को धारण करनेवाला कोई सैनिक, चमकती हुई तलवार को चलाता हुआ बिजली से सहित पृथिवी पर स्थित नवीन मेघ की समानता को प्राप्त हो रहा था ।। ६५ ।। कल-कल शब्द से क्षोभ १. इत्यवदाजि निश्चयः ब० ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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