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अष्टमः सर्गः
[ युग्मम् ]
दुर्भसूचि दलिताङ्गुलिक्षरद्रक्तयावकविराजिताङ्घ्रयः । वाष्पपूर्ण नयना भैयाकुला भर्तृहस्तधृतवामपाणयः ॥ ५१ संचरन्ति परितो दवानलं तस्य शत्रुवनिताः स्खलत्पदम् । वेधसा पुनरपि प्रवर्ततोद्वाहसंपद इवाधुना वने ॥५२ रूढवंशगहनान्धकारितं भग्नशालवलयं समन्ततः । वन्यनागपरिभग्नतोरणं स्तम्भदन्तुरितगोपुराजिरम् ॥५३ अंशुकायित फणीन्द्रकञ्चुकच्छेदभासुरितशालभञ्जिकम् । सिंहशावकनखाङ्कशाहतिक्षुण्ण चित्रगजराजमस्तकम् ॥५४ कुट्टिमेषु सलिलाभिशङ्कयोदन्यता मृगगणेन मदतम् । वानरै करतलैरशङ्कितं वाद्यमानपरिभिन्नपुष्करम् ॥५५ यौवनोद्धत पुलिन्दसुन्दरीसेवितैकशयनीयवेदिकम् । पञ्जरच्युतशुकैः ससारिकैः पठ्यमाननरनाथ मङ्गलम् ॥५६ तस्य शत्रुभवनं विलोकयन्नीदृशं पथिकपेटको वने । त्रस्तचित्तभितरेतरं भयादप्रतीक्ष्य सहसातिगच्छति ॥५७ [ कुलकम् ] काञ्चनप्रधिविनिर्गतानलज्वालया जटिलिताष्टदिङ्मुखम् । विहितरक्षमक्षयं वज्रतुम्बमिनबिम्बभासुरम् ॥५८
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आँसू आ जाते हैं, उस समय उनकी कान्ति ही निराली होती है, कन्यादान के रूप में पति उनके बाँए हाथ को ग्रहण करता है और लज्जावश लड़खड़ाते पैरों से वे अग्निकुण्ड की प्रदक्षिणा देती हैं। ठीक यही दशा भय से भागकर वन में गई शत्रुस्त्रियों की होती है क्योंकि डाभ की अनी से पैरों की अँगुलियाँ खण्डित हो जाने के कारण उनसे महावर के समान लाल-लाल खून निकलने लगता है, दुःख के आँसुओं से उनके नेत्र भरे रहते हैं, वे शत्रु के आने के भय से घबड़ाई रहती हैं, सहयोग के नाते पति अपने हाथ से उनका बायाँ हाथ पकड़ कर उन्हें चलाते हैं तथा इसी दशा में वे दावानल के चारों ओर चक्कर लगाती हैं। इससे ऐसा जान पड़ता है कि विधाता ने फिर से उनका विवाह रचा हो ।। ५१-५२ ।। उत्पन्न हुए बाँसों के वन से जो अन्धकार युक्त हो रहा है, जिसके कोट का घेरा चारों ओर से खण्डित हो गया है, जिसके तोरण जङ्गली हाथियों के द्वारा चकनाचूर कर दिये गये हैं, जिसके गोपुर — प्रधान द्वार का आँगन खम्भों से ऊँचा- नीचा हो रहा है, जिसकी पुतलियाँ वस्त्र के समान आचरण करनेवाली साँप की कांचलियों के टुकड़ों से सुशोभित हैं, जिसमें चित्रलिखित बड़े-बड़े हाथियों के मस्तक सिंह शिशुओं के नख रूपी अङ्कुशों के प्रहार से खुद गये हैं, जो मणिमय फर्सों में पानी की आशङ्का से प्यासे मृग-समूह के द्वारा मर्दित हो रहा है, जहाँ पड़े हुए फूटे मृदङ्गों को बानर निर्भय होकर अपने हाथों से बजाते हैं, जिसके सोने के चबूतरों पर यौवन से मदमाती भिल्लिनियाँ शयन करती हैं, और जिसमें मैनाओं के साथ पिंजड़ों से छोड़े गये तोताओं के द्वारा राजा का मङ्गलगान पढ़ा जा रहा है ऐसे उसके शत्रु भवन को देखता हुआ पथिकों का समूह वन में इतना भयभीत चित्त हो जाता है कि वह भय के कारण परस्पर किसी की प्रतीक्षा किये बिना ही जल्दी से उसे लाँघ कर आगे निकल जाता है ॥५३-५७।। जिसकी सुवर्णमय प्रधि - नेमि - चक्रधारा से निकली हुई अग्नि की ज्वालाओं से आठों दिशाएँ
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