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________________ ૧૬ वर्धमानचरितम् अन्यथा निजवधूजनालये कथ्यते रणकथा यथेच्छया । अन्यथैव वरवीरवैरिणां स्थीयते ननु पुरो रणाजिरे ॥४५ कि वैचोsनुसदृशः पराक्रमः शक्यते महति कर्तुमाहवे । गर्जति श्रुतिभयंकरं यथा कि तथा जलधरः प्रवर्षति ॥४६ कस्य वा भवति कः सखा रणे क्षीववारणघटाभिराकुले । दृश्यते जगति सर्वसंगतं प्राण संगतमथैकमद्भुतम् ॥४७ स्तब्धमुत्खनति किं न मूलतः पादपं तटरुहं नदीरयः । वेतसः प्रणमनाद्विवर्धते चाटुरेव कुरुते हि जीवितम् ॥४८ भूभृतामुपरि येन शात्रवः स्थापितः सुहृदपि स्वतेजसा । साधुतापदमधिष्ठितावुभावुत्तमः खलु न तादृशः परः ॥४९ यस्य चापरवशङ्कया रिपुस्त्रस्तधीः किमधुनापि मुह्यति । निष्ठुरं ध्वनति नूतने घने नो वने हरिणशावकैः समम् ॥५० इच्छानुसार अन्य प्रकार की कही जाती है और युद्ध के मैदान में उत्कृष्ट वीर शत्रुओं के सामने सचमुच ही दूसरे प्रकार से खड़ा हुआ जाता है । भावार्थ - अपनी स्त्रियों के सामने रणकौशल की चर्चा करना सरल है पर रणाङ्गण में शत्रुओं के सामने खड़ा रहना सरल नहीं है ।। ४५ ।। क्या महायुद्ध में अपने वचनों के अनुरूप पराक्रम किया जा सकता है ? अर्थात् नहीं किया जा सकता क्योंकि जिस प्रकार कानों में भय उत्पन्न करनेवाली गर्जना करता है उसी प्रकार क्या वह बरसता है ? अर्थात् नहीं बरसता ||४६|| मदोन्मत्त हाथियों की घटाओं से व्याप्त युद्ध में कौन किसका मित्र होता है ? अर्थात् कोई किसी का नहीं, सो ठीक ही है; क्योंकि संसार में सबकी संगति देखी जाती है परन्तु उसमें एक प्राणों की संगति आश्चर्यकारक होती है । भावार्थ - युद्ध में सब अपनी प्राणरक्षा में व्यग्र रहते हैं कोई किसी का साथी नहीं होता है ॥ ४७ ॥ क्या न झुकनेवाले तटवृक्ष को नदी का वेग जड़ से नहीं उखाड़ देता है ? अवश्य उखाड़ देता है । इसके विपरीत वेंत झुक जाने से Safai प्राप्त होता है, सो ठीक ही है; क्योंकि चाटुकारी - चापलूसी ही जीवन को सुरक्षित रखती है ॥ ४८ ॥ जिसने अपने तेज से राजाओं के ऊपर शत्रु और मित्र दोनों को स्थापित किया है तथा दोनों को साधुता के पद पर अधिष्ठित किया है उस चक्रवर्ती के समान सचमुच ही कोई दूसरा नहीं ॥ ४९ ॥ | वन में नूतन मेघ के कठोर गर्जना करने पर जिसने धनुष के शब्द की आशङ्का से भयभीत बुद्धिवाला शत्रु क्या इस समय भी हरिण के बच्चों के साथ मूर्च्छित नहीं होता है ? अर्थात् अवश्य होता है ॥५०॥ डाभ की अनी से खण्डित अङ्गुलियों से झरते हुए रुधिररूपी महावर से जिनके पैर सुशोभित हैं, जिनके नेत्र आँसुओं से परिपूर्ण हैं, जो भयाकुल- भय से आकुल है (पक्ष में भा शब्द के तृतीयान्त प्रयोग में कान्ति से युक्त हैं) और जिनका बायाँ हाथ पति के हाथ के द्वारा पकड़ा गया है ऐसी उसकी शत्रु - स्त्रियाँ दावानल के चारों ओर लड़खड़ाते पैरों से घूमती हैं और उससे ऐसी जान पड़ती हैं मानो विधाता के द्वारा इस समय दन में उनका विवाह फिर से किया जा रहा हो । भावार्थविवाह के समय स्त्रियों के पैरों में महावर लगाया जाता है, यज्ञकुण्ड के धूप से उनकी आँखों में १. म० पुस्तके ४५-५६ श्लोकयोः क्रमभेदो विद्यते ।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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