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अष्टमः सर्गः
१०१ उच्चचाल बलमाजया ततस्तस्य केतनविचुम्बिताम्बुदम् । प्रत्यनीकरणतूर्यनिःस्वनैराहवार्थमिव शब्दितं तदा ॥८१ प्रेषिता प्रतिबलं निवापितुं विष्णुना प्रथममेव देवता। प्राञ्जलिः प्रतिनिवृत्य तत्क्षणादित्युवाच विवितावलोकिनी ॥८२
वसन्ततिलकम् तेनाथ कल्पितसमस्तबलेन वेगावभ्युत्थितं बलवता हयकन्धरेण । अङ्गीकृतप्रतिभटैः खचराधिनाथैरामुक्तरलकवचैः सह निर्विशङ्कम् ॥८३
इन्द्रवज्रा छिन्नाः समस्ता भवतो महिम्ना प्रागेव विद्याः खचरेश्वराणाम् । तान् लूनपक्षानिव पक्षिराजान्को वा न गृह्णाति रणे मनुष्यः ॥८४
मालभारिणी उपकर्णमरातिसैन्यवार्ता विररामेत्यभिधाय तस्य विद्या। स्वकरद्वितयेन पुष्पवृष्टिं विकिरन्ती शिरसि भ्रमन्मवालिम् ॥८५
पृथ्वी अमोघमुखमुन्नतं मुशलमद्भुतं चन्द्रिकां गदां च युधि विद्विषां भयविधायिनी देवता।
हलेन सह बिभ्रताऽभजत भूरिदिव्यश्रियं जयाय विजयं स्वयं तमपराजितेाजितम् ॥८६ किरणरूपी संपदाएँ स्थित होती हैं उसी प्रकार नाना तरह के शस्त्रों को धारण करनेवाली समस्त विद्यादेवियाँ सब ओर से उस तेजस्वी को घेर कर आकाश में स्थित हो गईं ॥८०॥ तदनन्तर त्रिपृष्ठ की आज्ञा से, पताकाओं के द्वारा मेघ का चुम्बन करनेवाली उस सेना ने प्रयाण किया। उस समय वह सेना ऐसी जान पड़ती थी मानों शत्र की रणभेरियों के शब्दों ने उसे युद्ध के लिये बलाया ही था ॥८॥ शत्र की सेना को देखने के लिये विष्ण ने पहले ही जिस देवता को भेजा था वह उसी क्षण सबको देखकर लौटी और हाथ जोड़कर इस प्रकार कहने लगी ।।८।। समस्त सेना को तैयार करनेवाला वह बलवान् अश्वग्रीव, प्रतियोद्धाओं को स्वीकृत करनेवाले रत्नमय कवचों से युक्त विद्याधर राजाओं के साथ निःशङ्क हो बड़े वेग से उठकर खड़ा हुआ है ।।८।। आपकी महिमा से विद्याधर राजाओं की समस्त विद्याएं पहले ही नष्ट हो गई हैं अतः पंख कटे गरुड़ों के समान उन्हें युद्ध में कौन मनुष्य नहीं पकड़ लेगा? ॥८४॥ इस प्रकार कानों के समीप शत्रुसेना का समाचार कह कर वह विद्या चुप हो रही। समाचार कहते समय वह विद्या अपने दोनों हाथों से नारायण के शिर पर मँडराती हुई भ्रमरावली से युक्त पुष्पवृष्टि छोड़ रही थी॥८५॥ वह विद्या देवता, अत्यधिक दिव्य लक्ष्मी को धारण करनेवाले हल रत्न के साथ अमोघमुख | नामक उन्नत तथा आश्चर्य कारक मुसलरत्न, चन्द्रिका नामकी रत्नावली, और युद्ध में शत्रुओं को भय
१. विचुम्बिताबुरम् म० । २. प्रतिनियाचितुं तदा म० । ३. विदितावलोकनी म० । ४, नार्जितम् म ।