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________________ सप्तमः सर्गः शार्दूलविक्रीडितम् आवासान्प्रतिगच्छतेति वचसा भूपान्विसज्यं स्वयं, भूदेव्या घनपक्ष्मराजिषु रजाव्याजेन सचुम्बितः । आप्तैरध्वपरिश्रमाधिकतया खज्जं गतैः सेवकैरन्वीतः पुरुषोत्तमः स्ववर्सात सत्संपदं प्राविशत् ॥१०३ इत्यसगकृते श्रीवर्धमानचरिते सेनानिवेशो नाम सप्तमः सर्गः । अष्टमः सर्गः रथोद्धता एकदा सदसि केसरिद्विषं कश्चिदेत्य विदितः कृतानतिः । इत्युवाच वचनं वचोहरः शासनात्खचरचक्रवर्तिनः ॥ १ शृण्वतां गुणगणा न केवलं सूचयन्ति विदुषां परोक्ष । दिव्यतां तव वपुश्च पश्यतां दुर्लभं द्वयमिदं त्वयि स्थितम् ॥२ धैयंमाकृतिरियं व्यनक्ति नश्चेतसस्तव सदा समुन्नता । तोयधे रतिमहत्त्वमम्भसः किं ब्रवीति न तरङ्गसंहतिः ॥३ की अधिकता से लँगड़ाते हुए प्रामाणिक सेवकों से अनुमान हो उत्तम विभूति से युक्त अपनी वसतिका में प्रवेश किया ।। १०३ ।। इस प्रकार असग कविकृत श्री वर्द्धमान चरित में सेना निवेश का वर्णन करनेवाला सातवाँ सर्ग पूर्ण हुआ । आठवाँ स एक दिन विद्याधरों के चक्रवर्ती अश्वग्रीव की आज्ञा से प्रसिद्ध तथा नमस्कार करनेवाला कोई दूत सभा में आकर त्रिपृष्ट से इस प्रकार कहने लगा ॥ १ ॥ न केवल आपके गुणों के समूह, सुननेवाले विद्वानों के लिये परोक्ष में आपकी दिव्यता को सूचित करते हैं किन्तु आपका शरीर भी देखनेवालों के लिये आपकी दिव्यता को सूचित कर रहा है । आप में ये दोनों दुर्लभ वस्तुएँ—गुण और शरीर स्थित हैं । भावार्थ - किसी में गुण होते हैं तो उनके अनुरूप शरीर नहीं होता और किसी सुन्दर शरीर होता है तो उसके अनुसार गुण नहीं होते परन्तु आप में दोनों ही विद्यमान हैं और a आपकी दिव्यता को सूचित करते हैं । गुण परोक्ष में सुननेवालों के लिये और शरीर प्रत्यक्ष में देखनेवालों के लिये आपकी दिव्यता को सूचित करता है ॥ २ ॥ सदा समुन्नत रहनेवाली यह आकृति में १. गुणगणान्न म० । १२
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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