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________________ वर्धमानचरितम् प्रश्रयास्तव सुधारसच्छटाशीतलाः कठिनमप्यवान्तरे। द्रावयन्ति पुरुषं विशेषतश्चन्द्रकान्तमिव चन्द्ररश्मयः ॥४ स्निह्यति त्वयि गुणाधिके परं चक्रपाणिरतिसद्गुणप्रियः । स्वीकरोति भुवि किं न साधुतां साधवो नेनु परोक्षबान्धवाः ॥५ युक्तमेव भवतोरसंशयं संविधानुमितरेतरक्षमम् । सौहृदय्यमविनश्वरोदयं तोयराशिकुमुदेशयोरिव ॥६ जन्मनः खलु फलं गुणार्जनं प्रीणनं गुणफलं महात्मनाम् । इत्युशन्ति कृतबुद्धयः परं तत्फलं सकलसम्पदां पदम् ॥७ पर्वमेव सुविचार्य कार्यवित्सर्वतो विमलबुद्धिसंपदा। श्रेयसे सृजति केवलं क्रियां सा क्रिया विघटते न जातुचित् ॥८ यः प्रतीपमुपयाति वर्त्मनः सोऽधिगच्छति किमीप्सितां दिशम् । किं प्रयात्यनुशयं न तन्मनो वीक्ष्य दुर्णयविपाकमग्रतः ॥९ स्वामिनं सुहृदमिष्टसेवकं वल्लभामनुजमात्मजं गुरुम् । मातरं च पितरं च बान्धवं दूषयन्ति न हि नीतिवेदिनः ॥१० आपके चित्त की धीरता को प्रकट करती है सो ठीक ही है क्योंकि समुद्र की तरङ्गावली क्या उसके जल की अगाधता को नहीं कहती ? अर्थात् अवश्य कहती है ॥३॥ जिस प्रकार चन्द्रमा की किरणें अन्तरङ्ग में कठोर चन्द्रकान्तमणि को भी द्रवीभूत कर देती है उसी प्रकार सुधारस की छटा के समान शीतल आपके विनय, अन्तरङ्ग में कठोर पुरुष को भी विशेष रूप से द्रवीभूत कर देते हैं। भावार्थ-चन्द्रकान्तमणि यद्यपि कठोर होता है तो भी अमृतरस की छटा के समान शीतल चन्द्रमा की किरणें जिस प्रकार उसे द्रवीभूत कर देती हैं उससे पानी झरा देती है उसी प्रकार कोई मनुष्य यद्यपि अन्तरङ्ग में कठोर होता है-अहंकारी होता है तो भी अमृतरस की छटा के समान शीतल आपके विनय उसे द्रवीभूत कर देते हैं अर्थात् स्नेह प्रकट करने के लिये आतुर बना देते हैं ॥ ४॥ चूंकि आप गुणों से अधिक हैं-अधिक गुणों से परिपूर्ण हैं अतः चक्रवर्ती आप में अत्यधिक स्नेह करता है । पृथिवी पर समीचीन गुणों से सातिशय प्रेम रखनेवाला पुरुष क्या साधुतासज्जनता को स्वीकृत नहीं करता ? अर्थात् अवश्य करता है। सचमुच ही साधु परोक्ष बन्धु होते हैं॥५॥ जिस प्रकार समद्र और चन्द्रमा में अविनाशी मित्रता है उसी प्रकार निःसंदेह आप दो में भी परस्पर का उपकार करने में समर्थ अविनाशी मित्रता का होना योग्य ही है ॥ ६ ॥ निश्चय ही जन्म का फल गुणों का अर्जन करना है, गुणों का फल महात्माओं को प्रसन्न करना है और महात्माओं के प्रसन्न करने का उत्कृष्ट फल समस्त संपदाओं का स्थान होना है इस तरह बुद्धिमान् पुरुष कहते हैं ॥ ७॥ कार्य को जाननेवाला पुरुष, निर्मल बुद्धिरूप सम्पदा के द्वारा पहले ही सब ओर से अच्छी तरह विचार कर मात्र कल्याण प्राप्ति के लिये जिस क्रिया को प्रारम्भ करता है वह क्रिया कभी विघटती नहीं है-नष्ट नहीं होती है।॥ ८॥ जो मनुष्य मार्ग के विपरीत जाता है वह क्या इच्छित दिशा को प्राप्त होता है ? और उसका मन आगे अनीति का फल देखकर क्या पश्चाताप को प्राप्त नहीं होता है ? ॥९॥ नीति के जानने वाले पुरुष, स्वामी, मित्र, इष्टसेवक, प्रिय१. न न ब०।
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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