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________________ ८८ वर्धमानचरितम् कुरु करभमपेतयन्त्रभारं मसृणय भूतलमानयाम्बु शीतम् । उववसितमुदस्य राजकीयं विरचय काण्डपटं समन्ततोऽपि ॥९६ अपमय रथमत्र बध्यतेऽश्वो नय विपिनं वृषभांस्तृणाय गच्छ । इति भृतकजनो महत्तरोक्तं द्रुतमकरोन्नहि सेवकः स्वतन्त्रः ॥९७ परिचित परिचारिकाकराग्रकृतपरिपीडननष्टयान खेदाः । दिनविधिमवनीश्वरैकभार्याः स्वयमनुतस्थुरनुक्रमेण सर्वम् ॥९८ इयमुरगरिपुध्वजेन लक्ष्या नृपवसतिः सुनिखाततोरणश्रीः । अयमपि गगनेचरेन्द्रवासो विविधविमानविटङ्कभिन्नमेधः ॥९९ अयमुरुवसज्जनेन पूर्णो विपणिपथः क्रयविक्रयाकुलेन । यमनुकितवस्थलं निविष्टा ननु वसतिर्वरवारकामिनीनाम् ॥१०० इति कटकमशेषमुद्दिशन्तः पतितजरद्गवभारमुद्वहन्तः । कथमपि च विलोकयाम्बभूवुनि जर्सात सुचिरं प्रयुक्तभृत्याः ॥ १०१ (त्रिभिर्विशेषकम् ) प्रहर्षिणी पाश्चात्त्यानथ निजसैनिकप्रधानान्व्या क्रोशन्पटहरवैश्च भेदवद्भिः । उत्क्षिप्तदिशि दिशि केतनैश्च चित्रैरात्मीयान्कटकजनो मुहुर्जुहाव ॥१०२ वायु से जिनका पसीना शान्त हो गया था तथा जिन्होंने कवच उतार कर रख दिये थे ऐसे राजाओं ने श्रम दूर करने के लिये पृथिवी पर बिछी हुई कुथाओं - हाथी की झूलों पर क्षणभर शयन किया ।। ९५ ॥ ऊँट लदे हुए मन्त्र के भार से रहित करो, पृथिवी को चिकना करो, ठण्डा पानी लाओ, राजा का तम्बू खड़ा कर उसके चारों ओर कनातें लगाओ, रथ दूर करो, यहाँ घोड़ा बाँधा जाता है और घास के लिये बैलों को जङ्गल ले जाओ, इस प्रकार अपने प्रधान के द्वारा कहे हुए कार्य को सेवकों ने शीघ्र ही कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि सेवक स्वतन्त्र नहीं होता ।। ९६-९७ ॥ परिचित सेविकाओं के हस्ताग्र भाग से किये हुए मर्दन से जिनकी मार्ग की थकावट नष्ट हो गयी थी ऐसी राजा की प्रधान स्त्रियों ने दिन सम्बन्धी समस्त कार्य को क्रम-क्रम से स्वयं ही संपत्र किया था ।। ९८ ।। जो गरुड़ की ध्वजा से पहिचानी जाती है तथा जहाँ गड़े हुए तोरणों की शोभा फैल रही है ऐसी यह राजा प्रजापति की बसति है और अनेक विमानों के अग्रभाग से मेघ को चीरनेवाला यह विद्याधरों के राजा ज्वलनजटी का निवास स्थान है । यह खरीद और बेचने में व्यग्र बहुत भारी तरुण पुरुषों से भरा हुआ बाजार है और यह विटों की वसति के समीप खड़ी की हुई उत्तम वेश्याओं की वसति है । इस प्रकार जो समस्त कटक को बतला रहे थे तथा जो पड़े हुए बृद्ध बैल के भार को स्वयं उठाये हुए थे, ऐसे कार्यरत सेवक बहुत समय बाद किसी तरह अपनी वसति को देख सके थे । ९९ - १०१ ।। तदनन्तर कटक के निवासी लोग पीछे आनेवाले अपने सैनिक अधिकारियों को चिल्ला-चिल्लाकर जोरदार बाजों के शब्दों तथा प्रत्येक दिशा में फहरायी हुई रङ्ग -बिरङ्गी ध्वजाओं के द्वारा बार-बार बुला रहे थे ।। १०२ ।। सघन बरौनियों में लगी हुई धूलि के छल से पृथिवी देवी ने जिसका अच्छी तरह चुम्बन किया था ऐसे त्रिपृष्ट ने 'अपने-अपने निवास • स्थान पर जाओ' इस प्रकार के शब्द से राजाओं को विदा किया और स्वयं मार्ग सम्बन्धी परिश्रम
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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