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________________ सप्तमः सर्गः सतरङ्गमिवाश्वसम्पदा सतडिच्छेदमिवायुधत्विषा । सजलाभ्रमिव क्षरन्मदैः करिभिः संचरदद्विभासुरेः ॥८९ मालभारिणी इति भूरिबलं पुरो वितन्वन्हरिराद्यः परिसम्मितैः प्रयाणैः । प्रतिसैन्यनिविष्टसानुवेशं स रथावर्तगिरिं समाससाद ॥९० पष्पिताग्रा अथ सरस तृणोन्नपावकीर्णामविरल पादपराजिराजितान्ताम् । उपनदि बलमध्युवास पूर्व बलपतिना प्रविलोकितां धरित्रीम् ॥९१ विरचितपटमण्डपोपकार्या स्थलपरिभस्त्रमकारि सर्वतः सा । प्रतिवसति समुच्छ्रितात्मचिह्ना भृतकजनेन पुरोगतेन सद्यः ॥९२ अपहृतकुथकण्टकध्वजादीन्विदितनयाः सलिलावगाहपूर्वम् । उपकटकमनेकपान्बबन्धुस्त रुगहनेषु मदोष्मणाभितप्तान् ॥९३ श्रमजलकणिकाचिताखिलाङ्गा व्यपगतपल्ययनास्तुरङ्गवर्याः । क्षितितललुठितोत्थिताश्च पीत्वा जलमवगाह्य विशश्रमुनिबद्धाः ॥९४ परिजन धुततालवृन्तवातप्रशमितघर्मजलाः क्षणं नरेन्द्राः : क्षितिनिहितकुथासु शेरते स्म श्रममपनेतुमपेतवारबाणाः ॥९५ ८७ कर रहा था, तालाबों की जलरूपलक्ष्मी को कीचड़ से युक्त कर रहा था, रथ के पहियों की चीत्कार से प्राणियों के कर्णपुट को पीड़ित कर रहा था, और आकाश को आच्छादित करने वाली धूलि से दिशाओं के छिद्रों को भर रहा था ऐसा प्रथम नारायण अश्वग्रीव, अपनी उस सेना को जो कि अश्व रूप संपदा से ऐसी जान पड़ती थी मानों तरङ्गों से युक्त हो, शास्त्रों की कान्ति से ऐसी - जान पड़ती थी मानों बिजली के खण्डों से संयुक्त हो, तथा चलते-फिरते पर्वतों के समान शोभायमान मदस्रावी हाथियों से ऐसा जान पड़ती थी मानों सकल मेघों से रहित हो, आगे बढ़ाता हुआ कुछ ही प्रयाणों में उस रथावर्त पर्वत के समीप जा पहुँचा जिसकी शिखरों पर शत्रु की सेना ठहरी हुई थी । ८७-९० ।। तदनन्तर सेना ने नदी के समीप उस भूमि में निवास किया जो कि सरस तृण तथा नवीन घास से व्याप्त थी, सघन वृक्षावली से जिसका अन्तभाग सुशोभित था और सेनापति जिसे पहले देख चुका था ।। ९९ ।। शीघ्र ही आगे गये हुए सेवकों ने उस भूमि को साफ कर सब ओर निर्मित कपड़ों के सामान्य डेरे तथा राजाओं के ठहरने के योग्य बड़े-बड़े तम्बुओं से युक्त कर दिया और प्रत्येक डेरे पर पहिचान के लिये अपने-अपने चिह्न खड़े कर दिये ॥ ९२ ॥ नीति के . जाननेवाले महावतों ने, जिनके पलान कवच तथा ध्वजा आदि को अलग कर दिया था ऐसे मद की गर्मी से संतप्त हाथियों को पहले जल में प्रविष्ट कराया, पश्चात् कटक के समीप ही सघन वृक्षों बाँध दिया ।। ९३ ।। जिनका समस्त शरीर पसीना के जलकणों से व्याप्त था, जिनका पलान दूर कर दिया गया था, तथा जो पृथिवी पर लोटने के पश्चात् खड़े हो गये थे ऐसे घोड़ों ने पानी पीकर भीतर प्रवेश किया तदनन्तर बाँधे जाने पर विश्राम किया ।। ९४ ।। सेवकों के द्वारा कम्पित पदों
SR No.022642
Book TitleVardhaman Charitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnachandra Muni, Chunilal V Shah
PublisherChunilal V Shah
Publication Year1931
Total Pages514
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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