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________________ (४३४) क्षपयंति कालं संतोष एव पुरुषस्य परं निधानम्॥ भावार्थ-सर्पो पवननुं पान करे छे, छतां दुर्बळ नथी, शुष्क घासने भक्षण करनारा वनहाथीओ सदा बलिष्ठ रहे छे अने मुनिवरो (तापसो) कंदमूळ के फळोथी गुजरान चलावे छे. माटे संतोष-एज पुरुषy परम निधान छे. ४७ __ स्वस्त्यस्ति सजनेभ्यो येषां हृदयानि दर्पणनिमानि । दुर्वचनभस्मसंगादधिकतरं यांति निर्मलताम् ॥४८॥ मावार्थ-सज्जनोने सदा स्वस्ति छे, के जेमना हृ. दयो दर्पणसमान छे. वळी दुर्वचनरूप भस्मना संगथी जे अधिकाधिक निर्मळ थता जाय छे. ४८ सर्पाणां च खलानां च चौराणां च विशेषतः। अभिप्राया न सिध्यंति तेनेदं वर्तते जगत्॥४९॥ __ भावार्थ-सर्पो, दुर्जनो अने विशेषथी चोर लोकोना अभिप्रायो सिद्ध थता नथी, तेथी आ जगत् चाली रहुं छे. ४९
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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