SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 443
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वृद्ध छतां जीवे छे, स्वजनो साथे वैरभाव चाले अने इतर जनो साथे मित्राई थती जोवामां आवे छे-हे लोको ! तमे जुओ तो खरा के आ कळिकाळमां आज काल केवां कौतुक चाले छे. ४१ सेवकः स्वामिनं द्वेष्टि कृपणं परुषाक्षरम्। आत्मानं किं न स दृष्टि सेव्यासव्यं न वेत्ति यः४२ भावार्थ-सेवक पोताना कृपण अने कर्कश बोल-- नार स्वामी उपर द्वेष करे छे. परंतु जे सेव्यासेव्यने जाणतो नथी, ते पोताना आत्मा उपर केम द्वेष करतो नथी ! ४२ ___ स्वायत्तमेकांतगुणं विधात्रा विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः । विशेषतः सत्त्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपंडितानाम् ॥४३॥ भावार्थ-विधाताए अज्ञानताने आच्छादित करवा एक स्वाधीन अने एकांत गुणकारी गुण बनावेल छे-ते ए के सुज्ञ जनोनी सभामां मूर्ख जनोए विशेषथी मौन धरी रहेg एज भूषण छे. ४३
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy