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________________ ( १८६ ) ए बनेथी कोई अपूर्वज छे के जे दिवसे के राते जोई शकतोज नथी, सर्वदा अंध छे. ३१ देहीति वचनं श्रुत्वा देहस्थाः पंच देवताः। नश्यति तत्क्षणादेव श्रीह्रीधीधृतिकीर्तयः॥३२॥ भावार्थ-' आपो' एवं वचन सांभळतां देहमा रहेल लक्ष्मी, लज्जा,बुद्धि,धृति अने कीर्ति ए पांच देवताओ तरतज भागी जाय छै. ३२ दुरितवनधनाली शोककासारपाली भवकमलमराली पापतोयप्रणाली । विकटकपटपेटी मोहभूपालचेटी विषयविषभुजंगी दुःखसारा कृशांगी॥३३॥ भावार्थ-पाप-वनने सिंचवामां मेघमाळारूप, शोकरूप सरोवरनी पाळरूप, संसाररूप कमळनी राजहंसीरूप, पापरूप पाणीनी नीकरूप, विकट कपटनी पेटीरूप, मोहराजानी दूतीरूप अने विषय-विषनी नागणरूप एवी स्त्री खरेखर मात्र दुःखरूपज छे. ३३ दर्शनाद्धरते चित्तं स्पर्शनाइरते बलम् । संगमाइरते वीर्य नारी प्रत्यक्षराक्षसी ॥३४॥
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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