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________________ ( १४९ ) भावार्थ- वृक्ष छेदवामां आवतां पण ते पुनः नवपल्लवित थाय छे, चंद्र क्षीण छतां ते पुनः वृद्धि पामे छे- एम धारीने संत जनो आ जगतमां संतप्त थता नथी. ३ छायामन्यस्य कुर्वंति तिष्ठति स्वयमातपे । फलान्यपि परार्थाय वृक्षा सत्पुरुषाः इव ॥ ४॥ भावार्थ - जे पोते आतप ( तडका ) मां रहीमे अन्यने शीतल छाया आपे छे, एटलुंज नहि, पण जेओ जगतने फळो आपीने परोपकार करे छे-एवा वृक्षो ते खरेखर ! सत्पुरुषो जेवाज कहेवाय छे. ४ जामाता जठरो जाया जातवेदा जलाशयः । पूरिता नैव पूर्यंते जकाराः पंच दुर्भराः ॥ १ ॥ जननी जन्मभूमिश्च जाह्नवी च जनार्दनः । जनकः पंचमश्चैव जकाराः पंच दुर्लभाः ॥ २ ॥ भावार्थ - जमाइ, जठर, जाया, (स्त्री) अनि अने जलाशय - ए पांच जकार पूरतां पण पूराय नहि, माटे दुर्भर कहेल छे. अने जननी, जन्मभूमि, गंगा, (तीर्थ)
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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