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________________ ( १०६ ) तस्माज्जीवितदानेन किं पुण्यमुपमीयताम् ॥ ५० ॥ भावार्थ- जीवित विना कोइ पण धर्मक्रिया सिद्ध ती थी. माटे जीवितदान आपतां पुण्यनुं प्रमाण न थइ शके. ५० क तिग्मांशुः क खद्योतः क मेरुः क च सर्षपः । saraौकः क नानाकुः क साधुः क पुनर्गृही ५१ भावार्थ- सूर्य क्यां अने आगीयो क्यां ? मेरुगिरि क्यां अने सरसव क्यां, स्वर्ग क्यां अने राफडो क्यां, तेम साधु क्यां अने गृहस्थ क्यां १५१ कंपः प्रकंपनस्यापि धृत्या वृत्त्यापनीयते । न तु केनापि चापल्यं त्याज्यते कामिनीमनः ५२ भावार्थ -- प्रकंपन (वायु) नो कंप पण धृति अने इलाजथी दूर करी शकाय, पण खीना मननी चपलताने कोइ दूर करी शकतुं नथी. ५२ क कल्पवल्ली क तृणं क मणिः क्व च कर्करः । क राजहंसी व बकः क करेणुः क बर्करः ॥५३॥
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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