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________________ ( १०५ ) ओ लोभिष्ट बनता जाय छे, विविध चोर लोको वसुधाने लुंटे छे, आर्य जनो क्षीण थता जाय छे अने पिता पुत्रनो पण विश्वास करता नथी. अहो ! आ समयमां खरोखर दुनीया बहु कष्ट भोगवे छे. ४७ कषाया यस्य नोच्छिन्ना यस्य नात्मवशं मनः । इंद्रियाणि न गुप्तानि प्रव्रज्या तस्य निष्फला ४८ भावार्थ - जेना अंतरमांथी कषायो गया नथी, जेने मन पोताने स्वाधीन नथी, अने इंद्रियो जेने गुप्त नथी, तेनी प्रव्रज्या निष्फल थाय छे. ४८ कर्त्तुस्तथा कारयितुः परेण तुष्टेन चित्तेन तथानुमंतुः । साहाय्यकर्तश्च शुभाशुभेषु तुल्यं फलं तत्त्वविदो वदंति ॥ ४९ ॥ भावार्थ- पोते करनार, अन्य पासे करावनार तथा संतुष्ट मनथी अनुमोदन तथा सहाय करनार ए बधाने शुभाशुभमां तुल्य फल मळे छे, एम तत्त्वज्ञ जनों कहे छे. ४९/ कापि धर्मक्रिया सिद्धिं नाश्रुते जीवितं विना ।
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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