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( ९६ ) पंच । एकः प्रमादी स कथं न हन्या-द्यः सेवते पंचभिरेव पंच ॥ २४॥ ___ भावार्थ-हरण, हस्ती, पतंग, भ्रमर, अने मत्स्य ए पांचे पांच इंद्रियोना योगे मरण शरण थाय छे. तो जे एक प्रमादी थईने पांच इंद्रियोना पांच विषयोने सेव्या करे छे-ते केम विनष्ट न थाय ? २४ __ कुशलजननवंध्यां सत्यसूर्यास्तसंध्यां कुगतियुवतिमालां मोहमातंगशालाम् । शमकमलहिमानी दुर्यशोराजधानी व्यसनशतसहायां दूरतो मुंच मायाम् ॥ २५॥ __ मावार्थ-जे अकुशळने करे छे, जे सत्यरूप सूर्यने संध्यासमान छे, कुगतिरूप युवतिनी जे माळारूप छे, मोहरूप मातंग (हाथी ) नी जे शालारूप छे, शमरूप कमळने जे हीम समान, दुर्यशनी राजधानीरूप, अने जे सेंकडो संकटोने लावी आपे एवी मायाने हे भव्यो! तमे दूर तजी दो. २५ कामक्रोधस्तथा हर्षो मायालोभौ मदस्तथा।