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________________ ( ९५ ) कृपणेन समो दाता न भूतो न भविष्यति । अस्पृशन्नेव वित्तानि यः परेभ्यः प्रयच्छति ॥ २१॥ भावार्थ - कृपणसमान दाता थयो के थवानो पण नथी. कारण के पोताना धनने अड्या शिवाय ते बीजाओने आपी दे छे. २१ कृतकारितानुमति - प्रभेदारंभवर्जिताः । मोक्षैकतानमनसो यतयः पात्रमुत्तमम् ॥ २२ ॥ भावार्थ - कृत, कारित अने अनुमोदन तथा आरंमरहित अने मोक्षमांज एकतान राखनारा यति महात्माओनेज उत्तम पात्र कहेल छे. २२ कुटुंब कार्याण्यतिदुर्भराणि समुद्रकुक्षेः समरूपकाणि । रात्रिर्विभाता गृहचिंतयैव नष्टं गतं श्लोकशतं नरेंद्र ॥ २३ ॥ भावार्थ - हे राजन् ! समुद्रनी कुक्षिसमान कुटुंबना कार्यो अति दुर्भर छे. घरनी चिंतामां रात्रि पूर्ण थतां प्रभात थई गयुं अने तेनी साथे मारा सो श्लोक नष्ट थया. कुरंगमातंग पतंग भृंग - मीना हताः पंचभिरेव -
SR No.022632
Book TitleNiti Tattvadarsh Yane Vividh Shloak Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandra Maharaj
PublisherRavji Khetsi
Publication Year1917
Total Pages500
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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