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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
'वसुदेवहिण्डी' का मूल भाग या मुख्य कथाभाग है, जो कुल २५७ पृष्ठों में निबद्ध है । और, उपर्युक्त शेष चारों अधिकार नातिदीर्घता से कुल ११३ पृष्ठों में गुम्फित हुए हैं। इस प्रकार, ‘वसुदेवहिण्डी' (भावनगर - संस्करण) के कुल ३७० पृष्ठ उपलब्ध हैं। जैसा कहा गया, छठा अधिकार ‘उपसंहार' अनुपलब्ध है और अन्तिम अट्ठाईसवाँ लम्भ भी अधूरा ही रह गया है। 'वसुदेवहिण्डी' का 'कथोत्पत्ति' अधिकार विशुद्ध जैनकथा के प्रारम्भ करने की प्राचीन शैली का निदर्शन प्रस्तुत करता है । इस अधिकार स्पष्ट है कि मूलतः इस कथा (वसुदेवचरित) को भगवान् महावीर ने श्रेणिक से कहा था और फिर इसे सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी से और यत्र-तत्र कूणिक (अजातशत्रु) से भी कहा। इस प्रकार, वसुदेवहिण्डी' की मूल कथा, अनेक आनुषंगिक संवादों के माध्यम से उपकथाओं और अन्तःकथाओं से एक-दूसरे में अनुस्यूत होती हुई बृहत्कथाजाल में परिणत हो गई है, फलतः कहीं-कहीं तो मूलकथा का सूत्र ही कथाकार के हाथ से छूट गया-सा प्रतीत होता है। कभी-कभी तो पाठक 'वसुदेवचरित' से फिसलकर किसी अवान्तर कथा के आस्वाद में तन्मय हो जाता है और मूलकथा को प्रायः भूल बैठता है। लेकिन, कथानिपुण आचार्य संघदासगणी कथासूत्र के संचालन में इतने सतर्क हैं कि अवान्तर कथाओं में खोये हुए पाठक को पुनः मूलकथा की घटनाओं से बड़ी सहजता के साथ ला जोड़ते हैं। इस प्रकार, पाठक कथा के आस्वाद की रमणीयता, विविधता और विचित्रता में तरंगित होता चलता है ।
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वसुदेव के भौगोलिक परिभ्रमण के रूपों का सूचीबद्ध उपन्यसन 'वसुदेवहिण्डी' की ग्रथन-पद्धति की अपनी उल्लेखनीय विशिष्टता है, जिसमें कथासूत्रों के ऐतिहासिक क्रम की सहज व्यवस्था विद्यमान है, साथ ही लोकमानस के विविध रूपों का प्रतिबिम्बन भी । इसके अतिरिक्त, लोक-संस्कृति के समस्त उपकरण भी तीव्रता के साथ मुखरित हुए हैं। मौखिक या लिखित परम्परा द्वारा क्रमशः एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त 'वसुदेवहिण्डी' की कथा अपने सम्पूर्ण आभिजात्य के बावजूद लोकप्रचलित कथानकों से प्रसूत लोककथा ही है। 'वसुदेवहिण्डी' में प्रथित कथाएँ मूलतः कामकथाएँ हैं, किन्तु उनकी परिणति या पर्यवसान धर्मकथाओं में हुआ है 1
निष्कर्ष :
कृष्ण के पिता वसुदेव के हिण्डन की कथा से सम्बन्ध होने के कारण, अपनी 'वसुदेवहिण्डी' संज्ञा की अन्वर्थता से युक्त इस महत्कथाकृति की मूलकथा का उद्देश्य वसुदेव के चरित को उद्भावित करना है । यह 'वसुदेवहिण्डी' गुणाढ्य की पैशाची 'बृहत्कथा' का प्राकृत-नव्योद्भावन है, जो जैनाम्नाय की, विशेषतः श्वेताम्बर - सम्प्रदाय की सामाजिक-धार्मिक अवधारणाओं की पृष्ठभूमि में लिपिबद्ध हुआ है। इसमें श्रमण परम्परा के कथाकार ने ब्राह्मण- परम्परा में प्रथित 'बृहत्कथा' के चरित्रनायक नरवाहनदत्त की अद्वितीयता को वसुदेव के समान्तर चरित्र-चित्रण द्वारा द्वितीयता प्रदान की है । नरवाहनदत्त की भाँति वसुदेव विद्याधर तो नहीं थे, किन्तु उन्होंने विद्याधरियों से विवाह अवश्य किया । विद्याधरियों या विद्याधरों की सहायता से ही उन्हें विद्याओं की सिद्धि प्राप्त हुई और विद्याधर- लोक (वैताढ्य पर्वत की उत्तर और दक्षिण श्रेणी) से उनका सम्पर्क स्थापि हुआ । ब्राह्मण-परम्परा की 'बृहत्कथा' और उसकी उत्तरकालीन वाचनाओं ('बृहत्कथाश्लोकसंग्रह', ‘कथासरित्सागर' तथा 'बृहत्कथामंजरी) में कथाभूमि को अधिकांशतः देवत्व के परिवेश में उपस्थित