________________
वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
नामोल्लेख को देखकर लगाया है । सम्पादकद्वय ने द्वितीय अंश में ग्रन्थकार के सविशेष परिचय प्रस्तुत करने का संकेत तो दिया है, किन्तु वे परिचय उपस्थित नहीं कर पाये हैं और उनके द्वारा यथाप्रतिज्ञात तृतीय अंश की तो प्रस्तुति ही नहीं हो पाई है। इस प्रकार, संघदासगणिवाचक का परिचय जिज्ञासा और प्रतीक्षा का ही विषय बना रह गया है ।
६८
चतुरविजय - पुण्यविजय ने अपने 'प्रास्ताविक निवेदन' में 'वसुदेवहिण्डी' को 'उनतीस लम्भकोंवाली कृति' कहा है । परन्तु उनके द्वारा सम्पादित मूलभाग में कुल अट्ठाईस लम्भक ही है, जिनमें उन्नीसवाँ और बीसवाँ लम्भक लुप्त हैं। इस प्रकार, कुलं छब्बीस लम्भक ही मूल ग्रन्थ में प्राप्त हैं । चतुरविजय- पुण्यविजय की भूमिका में उनतीस लम्भकों का उल्लेख भ्रान्तिजनक है । और, इस भ्रान्ति की पुनरावृत्ति भी हुई है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, डॉ. हीरालाल जैन तथा डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री आदि शोध- अधीतियों ने चतुरविजय - पुण्यविजय की भूमिका के भ्रान्तिपूर्ण उल्लेख को, विना ऊहापोह किये यथावत् स्वीकार कर लिया है।' किन्तु, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने इस भ्रान्ति को लक्ष्य कर अपनी सूक्ष्मेक्षिका का प्रशंसनीय परिचय दिया है । २
'वसुदेवहिण्डी' की ग्रथन-पद्धति के सन्दर्भ में उक्त तीनों विद्वानों के अतिरिक्त डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने भी आधिकारिक चर्चा की है। इस सन्दर्भ में विस्तृत विवरण तथा सूचना के लिए उनकी शोधकृति 'दि वसुदेवहिण्डी : एन् ऑथेण्टिक जैन वर्सन ऑव दि बृहत्कथा' (प्र. एल्. डी. इंस्टीच्यूट ऑव इण्डोलॉजी, अहमदाबाद) द्रष्टव्य है । हम यहाँ उक्त विद्वानों के विचारों का अनुध्वनन-अनुसरण करते हुए अपना मन्तव्य व्यक्त करेंगे ।
जैन परम्परा में 'वसुदेवहिण्डी' के दो रूप मिलते हैं: पहला ग्रन्थ (जो हमारे आलोचनात्मकं अध्ययन का उपजीव्य विषय है) संघदासगणी-रचित है । इसे प्रथम खण्ड कहते हैं । धर्मसेनगणिमहत्तर द्वारा रचित इसी का एक दूसरा खण्ड भी उपलब्ध है, जो मध्यमखण्ड (प्रा. मज्झिम या मज्झिल्ल खण्ड) के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी पाण्डुलिपि, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन के सूचनानुसार, अहमदाबाद के 'ला. द. भारतीय संस्कृति-विद्यामन्दिर' (एल्. डी. इंस्टीच्यूट ऑव इण्डोलाजी) में सुरक्षित है और उक्त संस्थान के मनीषी निदेशक पं. दलसुख मालवणिया के तत्त्वावधान में पाण्डुलिपि का सम्पादन डॉ. भायाणी और डॉ. रमणीकलाल ने किया है, जिसका प्रकाशन शीघ्र ही सम्भावित है । ३
१. (क) बिहार- राष्ट्र भाषा-परिषद् (पटना) द्वारा प्रकाशित 'कथासरित्सागर' (समश्लोकी हिन्दी - अनुवाद-सहित) के प्रथम संस्करण (१९६०ई) की डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल- लिखित भूमिका, पृ. ब.
(ख) डॉ. हीरालाल जैन : 'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान', प्रथमानुयोग, प्राकृत-प्रकरण, पृ. १४ (ग) डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री : 'हरिभद्र के प्राकृत-कथासाहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन', पृ. ३७
२. द्रष्टव्य : 'दि वसुदेवहिण्डी : एन् ऑथेण्टिक जैन वर्सन ऑव दि बृहत्कथा' (वसुदेवहिण्डी' का अँगरेजी में अनूदित तुलनात्मक संस्करण) : सं. तथा अनु. डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, इण्ट्रोडक्शन : क्रिटिकल एपरेटस, पृ. १५ की पादटिप्पणी
दो
३. सूचना है कि अब यह प्रकाशित हो गया है और इसके प्रकाशित हो जाने से 'वसुदेवहिण्डी' के लुप्त लम्भकों में निबद्ध, प्रभावती (लम्भ) की संकेतित कथा का पूरा अंश सुलभ हो गया है, जिससे 'वसुदेवहिण्डी' के शोध तथा अध्ययन की दिशा में एक अभिनव आयाम उद्भावित हुआ है। मेरा यह कथन अनुमानाधृ है; क्योंकि 'मध्यमखण्ड' का अवलोकन मैंने नहीं किया है। —ले.