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वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप एक दिन कंस की अनुमति से वसुदेव राजा देवक की पुत्री देवकी को वरण करने के निमित्त मृत्तिकावती नगरी को चले। रास्ते में नेमिनारद से वसुदेव को देवकी के रूप-गुण की सूचना मिली। तब वसुदेव ने नारद से निवेदन किया कि वह उनके रूप-गुण का वर्णन देवकी से करें। नारद आकाशमार्ग से चले गये। वसुदेव अपने आदमियों के साथ सुखपूर्वक पड़ाव डालते, कलेवा करते हुए मृत्तिकावती नगरी पहुँचे। वहाँ कंस ने अनेक प्रकार से, राजा देवक से कन्या की माँग की। शुभ दिन देखकर राजा ने अपनी पुत्री देवकी का विवाह वसुदेव के साथ कर दिया। देवकी
और देवतुल्य समृद्धि के साथ वसुदेव मृत्तिकावती नगरी से चल पड़े और क्रम से मथुरा पहुँचे। कंस के द्वारा पूर्वकृत आग्रह को मूल्य देते हुए वसुदेव देवकी के साथ मथुरा में रहने लगे।
इसके बाद कृष्णजन्म की कथा प्रारम्भ होती है और कृष्ण के बालचरित को अधूरा छोड़कर यह महाग्रन्थ समाप्त हो जाता है !
(ग) कथा की ग्रथन-पद्धति : यथाविवृत कथा-संक्षेप से स्पष्ट है कि प्राकृत-भाषा में निबद्ध 'वसुदेवहिण्डी' में कृष्ण के पिता वसुदेव का हिण्डन (भ्रमण)-विषयक रोचक और रोमांचक वृत्तान्त गुम्फित है। भारतीय प्राच्य कथा-वाङ्मय के अन्तर्गत अद्भुत और अपूर्व यात्रावृत्त-साहित्य के रूप में 'वसुदेवहिण्डी' शिखरस्थ है और ग्रथन-पद्धति की दृष्टि से इसका अपना वैशिष्ट्य है। - सम्प्रति, 'वसुदेवहिण्डी' का जो एकमात्र संस्करण उपलभ्य है, वह प्राकृत के प्रकाण्ड विद्वान् तथा बृहत्तपागच्छीय संविग्न शाखा के आचार्य मुनिश्रेष्ठ श्रीमत्कान्तिविजय के शिष्य और प्रशिष्य मुनि चतुरविजय और मुनि पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित है और श्रीआत्मानन्द जैन सभा, भावनगर (गुजरात) से सन् १९३०-३१ई. में प्रकाशित हुआ है। ग्रन्थ के सम्पादन के क्रम में विविध जैन भाण्डारों से प्राप्त दुर्लभ, लगभग ग्यारह, पाण्डुलिपियों की, जिनमें ताडपत्रीय पाण्डुलिपियाँ भी सम्मिलित हैं, सहायता ली गई है। फिर भी, दुर्भाग्य से ग्रन्थ अपूर्ण है । पूरे ग्रन्थ के कुल अट्ठाईस लम्भों में, मध्य के दो लम्भ (सं. १९ और २०) एवं अन्तिम उपसंहार-अंश अप्राप्य हैं और बीच-बीच में भी कुछ अंश त्रुटित हैं।
'वसुदेवहिण्डी' के यथाप्राप्त संस्करण की भूमिका से ज्ञात होता है कि सौ लम्भकों में निबद्ध यह ग्रन्थ दो खण्डों में विभक्त था। पूरे ग्रन्थ में अट्ठाईस हजार श्लोकप्रमाण सामग्री थी। प्रथम खण्ड में उनतीस लम्भक थे, जिसकी विषय-वस्तु ग्यारह हजार श्लोकप्रमाण थी। दूसरे खण्ड में इकहत्तर लम्भक थे, जिसकी विषय-सामग्री अट्ठाईस हजार श्लोकप्रमाण थी। ग्रन्थ के उक्त दोनों खण्डों के रचयिता भी अलग-अलग थे। प्रथम खण्ड संघदासगणिवाचक ने लिखा था और द्वितीय खण्ड के रचयिता थे धर्मसेनगणिमहत्तर । खेद है कि इन दोनों महान् ग्रन्थकारों के परिचय के सम्बन्ध में कोई सुनिश्चित जानकारी नहीं मिलती । अनाम और अज्ञात रहकर इन दोनों रचनाकारों ने भारतीय संस्कृति की तात्त्विक उपलब्धिमूलक कर्तृत्व में अपने-अपने व्यक्तित्व को विसर्जित कर दिया ! मुनि चतुरविजय-पुण्यविजयजी ने अपने 'प्रास्ताविक निवेदन' में इतना ही लिखा है कि 'वसुदेवहिण्डी' के यथाप्राप्त प्रथम खण्ड के प्रथम अंश के रचयिता संघदासगणिवाचक सातवीं शती के पूर्वार्द्ध के सुप्रसिद्ध भाष्यकार एवं आचार्य जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण से पूर्ववर्ती (चिरन्तन) हैं। सम्पादक मुनिद्वय ने यह अनुमान भाष्यकार (जिनभद्र) के भाष्यग्रन्थों में 'वसुदेवहिण्डी' के