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वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप
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उक्त मध्यमखण्ड की रचना, धर्मदासगणी ने अपने पूर्ववर्ती संघदासगणी की रचना को आगे बढ़ाते हुए, लगभग दो शती बाद प्रस्तुत की है । उसकी भूमिका में, डॉ. अग्रवाल तथा डॉ. जैन अनुसार, धर्मदास ने कहा है: “कृष्ण के पिता वसुदेव ने लगातार एक सौ वर्षों तक परिभ्रमण किया और अनेक विद्याधरों एवं राजाओं की कन्याओं से विवाह किया । संघदासगणी ने वसुदेव के केवल उनतीस ' विवाहों का वर्णन किया था। शेष इकहत्तर विवाहों की कथा उन्होंने विस्तार भय से छोड़ दी थी । उसे मध्यम या बीच के लम्भकों के साथ कथासूत्र मिलाते हुए मैं कह रहा हूँ ।'
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स्पष्ट है कि धर्मसेनगणी-कृत 'मध्यम वसुदेवहिण्डी' में इकहत्तर लम्भक सत्रह हजार श्लोकों पूर्ण हुए हैं। डॉ. अग्रवाल की धारणा है कि धर्मसेन ने अनुमान के आधार पर वसुदेव के पूर्वकृत विवाहों के ढंग पर ही जितनी और कथाएँ मिल सकीं या गढ़ी जा सकीं, उन्हें जोड़-बटोरकर परिशिष्ट-रूप में एक नये ग्रन्थ का ठाट खड़ा किया। इससे यह अनुमान करना युक्तिसंगत नहीं कि मूल 'वसुदेवहिण्डी' में या उससे पहले की 'बृहत्कथा' में विवाहों की कहानियों का ऐसा ही विस्तार था ।
धर्मसेनगणी की 'वसुदेवहिण्डी' के 'मध्यमखण्ड' नाम की सार्थकता इस मानी में है कि संघदासगणिवाचक के ग्रन्थ का २८वाँ लम्भक जहाँ समाप्त होता है, उससे आगे धर्मसेन ने अपना कथासूत्र नहीं चलाया, बल्कि उन्होंने 'वसुदेवहिण्डी' के अट्ठारहवें कथा प्रियंगुसुन्दरीलम्भ के साथ - अपने इकहत्तर लम्भों का सन्दर्भ जोड़ा है और इस तरह संघदास की 'वसुदेवहिण्डी' के आसंग में अपने कथाग्रन्थ को विस्तार दिया । इसीलिए इसे 'वसुदेवहिण्डी' का मध्यमभाग या 'मध्यमखण्ड' कहते हैं ।
सम्प्रति, 'वसुदेवहिण्डी' के प्राप्य संस्करण में छह प्रकरण हैं : १. कथोत्पत्ति, २ . धम्मिलहिण्डी, ३. पीठिका, ४. मुख, ५. प्रतिमुख और ६. शरीर । अन्तिम प्रकरण 'शरीर' के अन्तर्गत ही २८ लम्भकों की कहानियाँ हैं, जिनमें अन्तिम देवकीलम्भ अपूर्ण है और १९ वें - २० वें लम्भकों की कहानियाँ भी लुप्त हैं । अट्ठारहवें प्रियंगुसुन्दरीलम्भ के बाद इक्कीसवें केतुमतीलम्भ की कथा प्रारम्भ होती है । यहीं १८वें लम्भ की समाप्ति पर धर्मसेनमणी ने अपने मध्यमखण्ड की कथा उपनिबद्ध की है । है कि कुल तीन सौ सत्तर पृष्ठों में निबद्ध 'वसुदेवहिण्डी' के यथाप्राप्य संस्करण के, छब्बीस पृष्ठों में परिबद्ध 'कथोत्पत्ति' नामक पहले प्रकरण के बाद पचास पृष्ठों में निबद्ध 'धम्मिल्लहिण्डी' नाम का एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण है । किन्तु स्पष्ट है, यह प्रकरण किसी अज्ञात मूलस्थान से छिटककर 'वसुदेवहिण्डी' में आ जुड़ा है। इस 'धम्मिल्लहिण्डी' प्रकरण में 'धम्मिल्ल ' नामक सार्थवाह-पुत्र की कथा है, जिसने देश - देशान्तरों में जाकर बत्तीस कन्याओं से विवाह किये । इनमें कुछ विद्याधर-कन्याएँ थीं, कुछ राजकन्याएँ और कुछ सार्थवाह की पुत्रियाँ । मूलग्रन्थ में इसे
ध्यातव्य
१. किन्तु, 'वसुदेवहिण्डी' के प्राप्त संस्करण में अट्ठाईस विवाहों का ही उल्लेख है । —ले.
२. " सुव्वइ य किर वसुदेवेणं वाससतं परिभमंतेणं इमम्मि भरहे विज्जाहरिंदणरवतिवाणरकुलवंससंभवाणं कण्णाणं सतं परिणीतं, तत्थ य सामाविययमादियाणं रोहिणीपज्जवसाणाणं एगुणतीसं लभित्ता संघदासवायएणं उवणिबद्धा । एकसत्तरिं च वित्थारभीरुणा कहामज्झे छड्डिता । ततो हं भो लोइयसिंगारकहापसंसणं असहमाणो आयरियसयासे अवधारेऊणं पवयणानुरागेणं आयरियनियोएण य तेसिं मज्झिल्ललंभाणं गंथनत्थे अब्भुज्जओ
। तं सुहइतो पुव्वहाणुसारेण चेव । ” - ' कथासरित्सागर' (पूर्ववत्), भूमिका - भाग, पृ. ८