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वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप हर लिये जाने के कारण, गूंगी हो गई थी। साधुओं ने सोमश्री की पूर्वभव-कथा कहते हुए उससे बताया था कि उसका पति सत्रह सागरोपम आयुःस्थिति के क्षीण होने पर च्युत होकर मनुष्य के रूप में उत्पन्न हो चुका है और वह भी पूर्वभव से च्युत होकर महापुर के राजा सोमदेव की पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई है। पति की पहचान के बारे में साधुओं ने संकेत किया था कि हाथी के दृष्टिपथ में आने पर जब उसका प्राण संकट में पड़ जायगा और तब उसका जो परित्राण करेगा, वही उसका पति होगा। तभी से सोमश्री गूंगी रहने लगी थी।
महापुर में वसुदेव इन्द्रमहोत्सव देख रहे थे, तभी उन्हें जनकोलाहल सुनाई पड़ा। कारण जानने के लिए वसुदेव ने इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई। तभी उन्हें यम का प्रतिरूप विद्युन्मुख नाम का मतवाला हाथी दिखाई पड़ा, जिसने अपने महावत को मार डाला था और मदान्ध होने के कारण वह अपने सामने पड़ जानेवाले आदमियों को रौंदता हुआ रथ पर बैठी युवतियों की ओर जा रहा था। सब लोग जहाँ-तहाँ भाग-दुबक रहे थे। इसी बीच उस हाथी ने अपनी सूंड़ से एक लड़की को रथ से बाहर खींच लिया। लड़की “बचाओ ! बचाओ ! !” चिल्लाने लगी।
हस्तिविद्या में कुशल वसुदेव ने बालिका को आश्वस्त किया और क्षणभर में ही हाथी को अपने वश में कर लिया। सभी लोग वसुदेव की प्रशंसा करने लगे। स्त्रियाँ उनपर फूल और गन्धचूर्ण की बरसा करने लगीं। वह बालिका प्रकृतिस्थ होकर प्रसत्र मुख से वसुदेव के पैरों पर गिर पड़ी और बोली : “स्वामी । आपका मंगल हो। स्वयं अक्षतशरीर रहकर आपने मुझे हाथी के मुँह से बचा लिया।” उसके बाद कुछ सोचकर उसने अपनी चादर वसुदेव को दे दी और वसुदेव द्वारा दी गई अँगूठी उसने ले ली।
सोमश्री के पिता राजा सोमदेव को जब यह ज्ञात हुआ कि सोमश्री को जीवनदान देनेवाला व्यक्ति ही उसका, पूर्वभव का, पति है, तब उसने विमान-सदृश पालकी भेजकर वसुदेव को राजभवन में बुलवाया। भृगुपुरोहित ने अग्नि में हवन किया और प्रसन्नचित्त राजा ने अपनी पुत्री का वसुदेव से विवाह कर दिया। इसके बाद “कोष-सहित मुझपर आपका अधिकार है" यह कहकर राजा ने मंगलसूचक बत्तीस करोड़ का धन वसुदेव को दिया। वसुदेव निरुद्विग्न भाव से सोमश्री के साथ विषय-सुख का भोग करने लगे (बारहवाँ सोमश्री-लम्भ) ।
एक दिन वसुदेव सम्भोगजनित परिश्रम से खिन्न होकर सोमश्री के साथ सोये हुए थे। भोजन पच जाने पर उनकी नींद खुली, लेकिन बिछावन पर सोमश्री को न देखकर उदास हो गये। बहुत खोज-ढूँढ़ करने पर भी जब वह नहीं मिली, तब वसुदेव ने अनुमान लगाया कि किसी आकाशगामी (विद्याधर) ने उसका अपहरण कर लिया है। सोमश्री को खोजते हुए वसुदेव 'अशोकवनिका' में पहुँचे। वहाँ सोमश्री उन्हें दिखाई पड़ी। उन्होंने उसका मनुहार करते हुए पूछा : "सुन्दरी ! क्यों अकारण क्रुद्ध हो गई? प्रसन्न हो जाओ ।" तब उसने कहा : “आर्यपत्र ! मैं आपसे क्रुद्ध नहीं हूँ। पूर्वस्वीकृत नियमोपवास के कारण मुझे मौन रहना था। प्रिय से प्रिय व्यक्ति से भी बात नहीं कर सकती थी। वह व्रत आपके चरणों की कृपा से पूरा हो गया। इस व्रत में विवाह-कौतुक का सारा काम करना होगा। इस व्रत का उद्यापन इसी पद्धति से होगा।” इसके बाद वसुदेव के साथ सोमश्री की विवाह-विधि पूरी की गई।