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वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप
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उससे उन्हें सूचना मिली कि राजा कपिल की कन्या कपिला के अर्द्धभरताधिपति के पिता की पत्नी होने के बारे में भृगु ज्योतिषी ने भविष्य कथन किया है और उस महापुरुष के अभिज्ञान के सम्बन्ध में बताया है कि जो स्फुलिंगमुख घोड़े का दमन करेगा, वही अर्द्धभरताधिपति का पिता होगा । वह सम्प्रति गिरिकूट ग्राम में देवदेव के घर में रहता है। ज्योतिषी की सूचना के आधार पर राजा कपिल ने ऐन्द्रजालिक इन्द्रशर्मा को गिरिकूट भेजा । वह ऐन्द्रजालिक, विद्या की साधना के बहाने उस पुरुष को रात्रि में, रस्सी में बँधे यन्त्र- निर्मित विमान पर बैठाकर गिरिकूट ग्राम से बाहर पर्वतशिखर पर ले आया। सुबह होते ही उस पुरुष ने समझ लिया कि उसका अपहरण किया जा रहा है। बस, वह विमान से उतरकर भाग गया, जिसे इन्द्रशर्मा पकड़ नहीं सका और लाचार होकर लौट आया । ऐन्द्रजालिक की विफलता से राजा कपिल चिन्तित हो उठे हैं ।
वनमाला को यह सूचना उसके पिता वसुपालित से प्राप्त हुई थी। इस सूचना में अपनी अनुकूलता देखकर वसुदेव ने वेदश्यामपुर में ही रहने का निर्णय किया। एक दिन उन्होंने राजा कपिल के स्फुलिंगमुख घोड़े का दमन करके विपुल लोकादर प्राप्त किया । ऐन्द्रजालिक इन्द्रशर्मा ने, अपने आयासित करनेवाले व्यवहार के लिए, वसुदेव से क्षमा माँगी। राजा को अपने जामाता की पहचान हो गई । इसके बाद शुभ दिन में, राजा ने अपनी पुत्री कपिला का विवाह वसुदेव से कर दिया और लज्जित भाव से बत्तीस करोड़ का धन दिया ।
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विवाह के बाद ध्रुवदर्शन से प्रसन्न वसुदेव राजा कपिल के घर में प्रिया कपिला के साथ सुखपूर्वक रहने लगे । उनका साला अंशुमान् (राजा कपिल का पुत्र) बराबर उनकी सेवा में लगा रहता था । उन्होंने अपने साले को विभिन्न कलाओं की विशिष्ट शिक्षा दी। वहीं कालक्रम से वसुदेव के, (पत्नी कपिला से) 'कपिल' नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (सातवाँ कपिला- लम्भ) ।
एक दिन महावत सुलक्षण हाथी ले आया । वसुदेव उसे वशंवद बनाकर उसपर सवार हो गये और अपनी इच्छा के अनुसार घुमाने लगे। वह विश्वस्त हाथी देखते-ही-देखते आकाश में उड़ गया और वसुदेव को जल्दी-जल्दी ले चला। कुमार अंशुमान् वसुदेव के .. अनुसरण के निमित्त दौड़ने लगा। लेकिन, हाथी वसुदेव को बहुत दूर उड़ा ले गया । “कोई विद्याधर हाथी का रूप धरकर उनका अपहरण कर रहा है” यह सोचकर वसुदेव ने हाथी के ललाट की हड्डी (कपालास्थि) पर तीव्र प्रहार किया। चोट खाते ही वह हाथी नीलकण्ठ के रूप में प्रकट हुआ और उन्हें छोड़कर अदृश्य हो गया । [ ज्ञातव्य है कि नीलकण्ठ वसुदेव की पूर्वपत्नी नीलयशा के मामा नीलकुमार का पुत्र था, जो अपनी अजातदत्ता पत्नी नीलयशा के साथ वसुदेव के विवाह होने के बाद से ही उनका (वसुदेव का) वैरी हो गया था और नीलयशा को, मयूरशावक का छद्मवेश धरकर हर ले गया था ।] नीलकण्ठ से मुक्त वसुदेव किसी जंगल के तालाब में जा गिरे और उससे बाहर निकल आये ।
भूलते-भटकते वसुदेव शालगुह सन्निवेश में जा पहुँचे। वहाँ वह पूर्णाश उपाध्याय के शिष्यों को आयुधविद्या की शिक्षा देने लगे । सभी शिष्य वहाँ के राजा अभग्नसेन के लड़के थे । वसुदेव ने योगाचार्य पूर्णाश उपाध्याय को धनुर्वेद की उत्पत्ति - कथा सुनाई और तद्विषयक शास्त्रार्थ में उसे पराजित किया। राजा को जब इसकी सूचना मिली, तब वह वसुदेव को अपने घर ले गया। प्रसंगवश वसुदेव ने राजा अभग्नसेन के समक्ष अश्व और हस्तिसंचालन - विद्या का अभूतपूर्व