________________
५०
वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा __बहुत देर भटकने के बाद, अपराण में, सूर्यास्त के समय, थके-माँदे वसुदेव तिलवस्तु नाम के सन्निवेश में पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक नरभक्षी राक्षस का विनाश करके ग्रामीणों का त्राण किया। ग्रामवृद्धों ने उनका बड़ा सम्मान किया। तब माला पहने कुछ रूपवती कन्याएँ वहाँ उपस्थित हुईं। ग्रामवृद्धों ने वसुदेव से कहा : “आपने इनका त्राण किया है, इसलिए आज से ये आपकी आज्ञा में रहेंगी। आपकी आज्ञाकारिणी ये बालिकाएँ उच्च कुल में उत्पन्न हुई हैं, इसलिए इन्हें सेविका के रूप में स्वीकार करें।”
__तब, वसुदेव ने ग्रामवृद्धों से कहा : “मैं ब्राह्मण हूँ। स्वाध्याय (वेदाध्ययन) के निमित्त बाहर निकला हूँ। इन कन्याओं से मुझे कोई प्रयोजन नहीं। इनके सत्कार से ही मैं अपने को पूजित मानता हूँ। मुझे यही सन्तोष है कि आप सबका कल्याण हुआ।” इसके बाद उन्होंने 'ये कन्याएँ सुखभागिनी हों' कहकर उन्हें विदा कर दिया। वसुदेव को देवतुल्य समझकर कन्याओं ने उनपर फूल बिखेरे और वे अपने घर चली गईं। बाद में जब वे कन्याएँ दूसरों को दी जाने लगीं, तब उन्होंने(कन्याओं ने) यह कहते हुए साफ इनकार कर दिया कि “हमारे पति तो वही (वसुदेव ही) हैं।"
__ तिलवस्तु से निकलकर वसुदेव अचलग्राम पहुँचे। वहाँ राजमार्ग पर स्थित धनमित्र नामक सार्थवाह की दुकान में गये। धनमित्र ने उन्हें बैठने को आसन दिया। वसुदेव के, दुकान में बैठते ही सार्थवाह को लाखगुना मुनाफा हुआ। ज्योतिषी ने धनमित्र को बताया था कि उसकी पुत्री मित्रश्री पृथ्वीपति की पत्नी होगी। अभिज्ञान के लिए दैवज्ञ ने धनमित्र को यह भी निर्देश किया था : “तुम्हारे पास जिसके बैठने से लाखगुना मुनाफा हो, उसी क्षण जानना कि यही वह पृथ्वीपति है।"
धनमित्र ने वसुदेव को पहचानकर उनका भव्य स्वागत किया और शुभ घड़ी में अपनी पुत्री मित्रश्री के साथ उनका विवाह कर दिया। विवाह-विधि समाप्त होने पर सार्थवाह ने वसुदेव को सोलह करोड़ का धन दिया।
धनमित्र के घर के समीप ही रहनेवाले सोम ब्राह्मण की पुत्री धनश्री बड़ी रूपवती थी। किन्तु; उसके पाँच पुत्रों में एक मेधावी होते हुए भी तोतला था। इसलिए, वह वेद नहीं पढ़ सकता था। इस बात से सभी ब्राह्मण दुःखी थे। अपनी पत्नी मित्रश्री के आग्रह करने पर उस ब्राह्मण- बालक की चिकित्सा के लिए वसुदेव राजी हो गये। उन्होंने कैंची लेकर फुरती से उस बालक की काली जिह्वातन्तु काट डाली और उस घाव पर रोहणद्रव्य (घाव भरनेवाली वनौषधि) लगा दिया। तब उस बालक की बोली स्पष्ट हो गई।
ब्राह्मण सन्तुष्ट होकर साक्षात् वसन्तश्री की भाँति अपनी रूपवती पुत्री धनश्री को वसुदेव के लिए प्रस्तुत कर दिया और बोला : “देव ! मेरे बच्चे की चिकित्सा करके आपने मुझे जीवनदान दिया है।" इसके बाद वसुदेव ने उस बालक को वेद पढ़ाना शुरू किया और थोड़े ही दिनों में वह बहुत सीख गया। वसुदेव अचलग्राम में मित्रश्री और धनश्री के साथ सुखभोग करते हुए कुछ दिन वहाँ रहे (छठा मित्रश्री-धनश्री-लम्भ)। ____ एक दिन वसुदेव मित्रश्री और धनश्री को छोड़कर निकल पड़े और वेदश्यामपुर जा पहुंचे। वहाँ उनकी भेंट उस नगर के राजा कपिल के महाश्वपति वसुपालित की कन्या वनमाला से हुई।