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________________ ५९६ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा उपसर्गपूर्वक 'रीङ् गतौ' धातु से निष्पन्न माना जाय, तो अर्थ होगा : सूँड़ को अच्छी तरह हिलाता हुआ ('सुरीयमाण' – सं.) । सेववण (३४२.५) : श्वेत-वन (सं.); उज्ज्वल उपवन। श्वेत > सेव: 'त' का 'व' । सोधण (३६५.३०) : शोधन (सं.), शुद्धि: आत्मशुद्धि (वसुदेव की) । प्रसंगानुसार, यहाँ 'आत्मपरिचय' अर्थ भी ध्वनित होता है । [ह] एल्लिय (५६.११) : प्राकृत में 'एल्ल' स्वार्थिक प्रत्यय के रूप में प्रयुक्त होता है । 'हएल्लिय' का संस्कृत-रूप 'हतक' (हत : हय) + इल्ल - इल्लिय) होगा । अर्थ होगा : हत्यारा । हरे पाणा ! (९८.२७) भोः प्राणा (सं.), अरे चाण्डाल ! (सम्बोधन)। प्राकृत का 'हरे' सम्बोधन ही क्षेत्रीय भाषा में 'हे, रे' के रूप में विकसित प्रतीत होता है । 'पाण' देशी शब्द प्राकृत में चाण्डाल या पापी के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। हल्लाविज्जमाणो (१४९.२६) : [ देशी] चलता हुआ; उछलता हुआ । हुंड (२७०.३०) : हुण्ड (सं.), टेढ़ा-मेढ़ा, कुबड़ा, विकृतांग । लोकभाषा का 'हुड्डु' शब्द इसी से विकसित प्रतीत होता है। होउदारो (२२१.५) : भवतु उदार: (सं.), उदार हों; कथाकार संघदासगणी ने यहाँ एक 'उ' का लोप कर (होउ + उदारो = होउदारो ) सन्धि का वैचित्र्य प्रदर्शित किया है। यथोपस्थापित विवेचनीय शब्दों की अनुक्रमणी से स्पष्ट है कि कथाकार संघदासगणी भाषा के वंशवद नहीं थे, अपितु भाषा ही उनकी वशंवदा थी। इस मानी में वह सच्चे अर्थ में वश्यवाक् कथाकार थे। वह प्रसंगानुसार, अर्थयोजना के आधार पर, शब्दों का प्रयोग करतें या गढ़ते थे । लक्ष्य करने की बात है कि किसी भी कथाकार के कथा-प्रसंग को समझे विना उसकी पदयोजना का ठीक-ठीक अर्थ निकालने में सहज ही भ्रान्ति की गुंजाइश हो सकती है। वास्तविकता तो यह है कि महान् कथाकार संघदासगणी ने भाषा को अपनी अर्थयोजना के अनुकूल विभिन्न चारियों में नचाया है। इसलिए, बड़े-बड़े शब्दशास्त्रियों के लिए भी 'वसुदेवहिण्डी' की • कथा के मूल भाव तक पहुँचने में भाषागत पर्याप्त सारस्वत श्रम अपेक्षित है । 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा से उसके कथाकार की बहुशास्त्रज्ञता प्रतिभासित होती है । यह कथाग्रन्थ 'आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते जैसी सैद्धान्तिक उक्ति का प्रत्यक्ष निदर्शन है । अभीप्सित भाव-व्यंजना के लिए भाषा का स्वैच्छिक प्रयोग कथाकार की अपनी विशिष्टता है । इसलिए, उसकी भाषा स्वयं व्याकरण का अनुसरण करने की अपेक्षा व्याकरण को ही स्वानुवर्त्ती होने के लिए विवश करती है। इस प्रकार, यह कथाग्रन्थ, परवर्त्ती प्राकृत-व्याकरण के निर्माताओं के लिए उपजीव्य प्रमाणित होता है। 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा को समझने के लिए संस्कृत, प्राकृत, पालि और अपभ्रंश की समस्त शाखाओं से परिचित होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । यहाँ
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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