________________
___ ५९५
कतिपय विशिष्ट विवेचनीय शब्द समाही (१४०.२३) : समाधि (सं.); मेल; बनाव; पटरी; समाधान। समोत्थइय (२९.२६) : समवस्थगित (सं.); समाच्छादित; अच्छी तरह ढका हुआ। सयं (२५८.२५) : सकृत् (सं.); एक बार । सयराहं (१८४.३) : [देशी ] एक साथ; युगपत् । 'देशीनाममाला' (८.११) के अनुसार,
'शीघ्र'।
सरिव्वयाहिं (१४३.२०) : सदृशवयस्काभि: (सं.); समान उम्रवालियों द्वारा । सव्वं समादुवाली काऊण (२९०.२४): 'सर्व समद्विपालिकं कृत्वा' (सं.), प्रसंगानुसार, यह
वाक्य, सब प्रकार के भोजन को सानकर या मिलाकर बराबर करने के अर्थ
में प्रयुक्त हुआ है। यहाँ भी कथाकार का प्रयोग-वैचित्र्य स्पष्ट है। सस्स (२६५.२९) : शस्य या प्रशस्य (सं.); शंसा, श्लाघा, प्रशंसा । सह (१८९.६) : [ देशी ] समर्थ; शक्तिमान्; कार्यक्षम । मूल के प्रसंगानुसार, रोगमुक्त
होने के बाद कार्यक्षमता से युक्त । 'देशीनाममाला' (वर्ग ८ : गाथा १) के
अनुसार 'योग्य'। सहिण (१३४.११) : श्लक्ष्ण (सं.); चिकना, मसृण । साउहस्सा निराउहस्सा (२७७.५) : सायुधस्य निरायुधस्य (सं.); आयुधसहित और
आयुधरहित का। यहाँ प्राकृत में षष्ठी विभक्ति के ‘स्स' रूप के विकृत प्रयोग
का वैचित्र्य ('स्सा') द्रष्टव्य है। सॉपच्छाइयसरीरा (७३.११) : सम्प्रच्छादितशरीरा' (सं.); ढकी हुई देहवाली । यहाँ अनुस्वार
('संप') की जगह अर्द्धचन्द्र-सहित आकार 'सॉप' का प्रयोग-वैशिष्ट्य
ध्यातव्य है। सामत्थेउण (३४.२०) : पर्यालोचन के अर्थ में यह देशी शब्द है। संस्कृत में इसका
रूपान्तर 'सम्यक् अर्थयित्वा' किया जा सकता है। मूलपाठ है : 'हियएणं
सामत्येऊणं।' अर्थात्, मन में विचार कर, सोच-समझकर। सारीहामि (२९१.१४) : सारयिष्यामि (सं.); छानबीन करूँगा; अन्वेषण करूँगा। सावस्सयासण (१३३.८) : सापाश्रयासन (सं.); आधारयुक्त आसन । कथाकार का संकेत
ऐसे आसन की ओर प्रतीत होता है, जिसमें उठगने के लिए आधार बना हो;
मसनद आदि से सज्जित आसन । सिट्ठ (६८.१४) : शिष्ट (सं.), [शास् + क्त ] कथित; शासित । सिरारोह (७०.१८) : शिरोरोही (सं.); हाथी के सिर पर चढ़नेवाला (महावत)। सुज्झोडिय (३२.३३) : सुज्झोटित (सं.); अच्छी तरह झाड़ा हुआ। सुरियत्त (५५.११) सुरचित (सं.), मूलपाठ : 'सुरिक्त्तग्गहत्यो' : शोभनाकार सँड़वाला या
सूंड़ को अच्छी तरह ऊपर उठाकर (हाथी का विशेषण) । ‘सुरियत्त' को 'सु'