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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
पारास (२०९.८) : प्रातराश (सं.), सुबह का जलपान; पाथेय; बटकलेवा। 'पारास' में मध्यवर्त्ती 'त' का लोप हो गया है।
पिंडोलग (११४.३०) : पिण्डावलगक (सं.); भिक्षा से निर्वाह करनेवाला; भिक्षु । पिण्ड = भिक्षा ।
पीलणवाररहिय (३४०.१५ ) : पीडनवाररहित (सं.); कथाकार द्वारा यह शब्द ऋषभस्वामी के नेत्र-कमल के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुआ है । मूलपाठ है : 'अच्छिकमलमालापीलणवाररहिय..।' इससे निर्निमेष दृष्टि का भाव- बिम्ब उभरता है। क्योंकि, 'पीलण' और 'वार' दोनों क्रमशः पीडन और निवारणवाची शब्द हैं। 'पीलणवार-रहिय = आँख में पीडा और रुकावट उत्पन्न करनेवाले, अर्थात् निमेषपात से रहित ।
पीहइ : पीहग (१५२.१४) : पीठक (सं.); नवजात शिशु को पिलाई जानेवाली घूँटी; घुट्टी । पुढविकज्ज (२५८.२४) : पृथिवीकाय- कार्य (सं.), पृथिवी तत्त्वमूलक पदार्थ । पेरंत : पज्जंत (६७.१८) : पर्यन्त (सं.); बाह्य परिधि; तक ।
पोएमि (८१.२०) : पातयामि (सं.); मार गिराता हूँ। 'प्रोत' (प्रा. पोत) — पिरोने के अर्थ में भी 'पोएमि' सम्भव है । किन्तु, प्रसंगानुसार 'पातयामि' ही संगत है । मूलपाठ : 'अहं एवं कागबलं पोएमि ।'
पोट्ट (६०.८ ) : [ देशी ] पेट या कुक्षि । मूलपाठ : 'वसुदत्ताए पोट्टे वेदणा जाया = (गर्भवती ) वसुदत्ता के पेट या कोख में पेड़ा होने लगी ।
पोत्सवेंटलिय (५५. ९-१० ) [ देशी ] कपड़े का गोल किया हुआ रूप; कपड़े की गठरी या पोटी । = कपड़ा; वेंटलिय = पोटली । . पोत्याहका दिया (१९१.२१ ) : प्रोत्साहका द्विजाः (सं.); प्रोत्साहित या प्रेरित करनेवाले ब्राह्मण ।
के प्रथमा
पोरागमसो (३५२.४) : पौरागमा: (सं.), रसोइये । अकारान्त 'पौरागम' शब्द बहुवचन में प्रयुक्त व्यंजनान्त (सकारान्त) 'पोरागमसो' रूप से कथाकार का प्रयोग - वैशिष्ट्य के प्रति आग्रह व्यक्त होता है ।
[फ ]
फरुससाला (३०९.१) : परुषशाला (सं.), कुम्भकार का गृह; कुम्भकार-गृह । कुम्भकारवाची 'फरुस' देशी शब्द है ।
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फरिसेऊण (१०७.११) : डाँटकर या निष्ठर वचन बोलकर । फरुस (सं. परुष) = कुवचन, निष्ठुर वाक्य । 'फरुस' से निष्पन्न असमापिका क्रिया ।
फालिय (३७.११): फालिक [ देशी ] देश-विशेष में बननेवाला वस्त्र-विशेष | फासुअ (२५.२) : प्रा(शु) सुक (सं.), अचेतन; अचित्त; जीवरहित पदार्थ |