________________
कतिपय विशिष्ट विवेचनीय शब्द
फिडिय (२२१.२७) : स्फिटित (सं.), मुक्त; उल्लंघित; भग्न ।
फेडेडं (८९.१०) : स्फेटितुं (सं.), स्खलित करने के लिए; विचलित करने के लिए; नष्ट करने के लिए ।
बंधामहे (३३०.१९) : यह 'बन्ध्' धातु का, आत्मनेपदी में, उत्तमपुरुष (हिन्दी का प्रथम पुरुष एवं अँगरेजी का 'फर्स्ट परसन') के बहुवचन का रूप है, जिसे कथाकार ने अविकल भाव से प्राकृत में आत्मसात् किया है ।
बाहिरभावो (११५.६-७): इस शब्द को कथाकार ने पालि से आयातित किया है; क्योंकि प्राकृत में 'बाहिर' का बहिस् (बाहर) के अलावा और कोई विशिष्ट अर्थ कोश में उल्लिखित नहीं मिलता । पालि के अनुसार 'बाहिरक' का अर्थ 'दूसरे मत से' कोश- संगत है। मूलकथा के प्रसंगानुसार 'बाहिर भावो' का अर्थ होगा : मन में किसी प्रकार का अन्यथाभाव मत लाओ या, दूसरे मत का मत बनो । सामान्य अर्थ 'घर से कहीं बाहर चले जाने की भावनावाला' भी असंगत नहीं है । मामा की लड़कियों द्वारा तिरस्कृत नन्दिसेन (पूर्वभव के वसुदेव) और उसके मामा की उक्ति-प्रत्युक्ति के प्रसंग में, मामा के मुख से कथाकार ने यह शब्द कहलवाया है । मूलपाठ है : 'मा बाहिरभावो होहि ' = मन में अन्यथाभाव मत लाओ या मन में घर से बाहर जाने की भावना मत आने दो ।
बितिज्जियं (१२०.२५): द्वितीयं द्वितीयां (सं.); दूसरा : दूसरी को । 'बितियं' के स्थान पर 'यं' के पूर्व 'इज्ज' क्रियातिपत्ति के साथ 'बितिज्जियं' का प्रयोग-वैचित्र्य विचारणीय है ।
५८९
बिबोयण: [ देशी] तकिया; उपधान। इसकी संस्कृत - छाया यदि 'बिब्बोकन' : 'बिब्बोक' माना जाय, तो अर्थ होगा : कामचेष्टा; शृंगारचेष्टा ।
बुहाहंकारा (१११.४) : बृहदहंकारा: (सं.), अतिशय गर्वोद्दीप्त । बोंदिय: बोंदि (३२३.९) : [ देशी ] शरीर; देह ।
[भ]
भवनकोडग (२२१.२५) : भवनकोटक (सं.), भवन का कक्ष; घर की कोठरी । भाउभंड (१२५.३०) : भ्रातृभण्ड (सं.), भाई के साथ बहन का युद्ध । भंड : भंडण कलह; गाली-गलौज; क्रोधपूर्ण नोंक-झोंक युद्ध ।
भारग्गसो (३६८.३०) : भाराग्रशः (सं.), परिमाण-विशेष; मूलपाठ : 'दिण्णं च भारग्गसो सुवण्णं ।'
भिडिय (३३७.५ ) : [ देशी ] भिड़नेवाला; भिड़न्त करनेवाला; बाजपक्षी ।
=
भार-का- भार (पदार्थ) ।