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कतिपय विशिष्ट विवेचनीय शब्द
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किया है : कच्छुल्लनारद (पृ.३१५), नेमिनारद (पृ.३६८) और नारद (पृ.८०,
८३, ९१, ९४ आदि)। कटयियसव्वंगो (१४३.१५) : ‘कण्टकितसर्वाङ्गः' (सं.), सर्वांग से पुलकित; रोएँ खड़े
हो जाने के कारण सारा शरीर कँटीला बना हुआ।('कटयिय' में अनुनासिकता
का लोप प्राकृत का प्रयोग है।) कठिणसंकाइयं (२३७.१२) : 'कठिनशङ्खादिकं' (सं.), झोला (वस्त्र), शंख आदि को।
पालि-विनयपिटक में भिक्षुकों के चीवर-विशेष को 'कठिन' कहा गया है। यहाँ भी साधुजनोचित वस्त्र की ओर कथाकार संघदासगणी ने निर्देश किया है, जिससे कथाकार पर बौद्धों के विनय और पालि-भाषा के प्रभाव
का संकेत मिलता है। कडय (७५.१९): कटक (सं.), प्रसंगानुसार पर्वत का मूलभाग; उपत्यका। इसका एक
अर्थ पर्वत का ऊर्श्वभाग या अधित्यका भी है। ऊर्श्वभाग छिन्न हो जाने के कारण ही राजगृह के विपुलाचल का नाम संघदासगणी ने 'छिनकटक'
दिया है। कडिल्ल (३२३.३) : [देशी] वन; जंगल; अटवी। कठिण (२१६.१७) : [ देशी] बहँगी। कणिस (२६९.३) : कणिश (सं.), धान या किसी भी शस्य की बाली। 'कणिस' का
विवरण प्रस्तुत करते हुए हेमचन्द्र ने कहा है : 'धान्यशीर्षवाची तु कणिसशब्द
संस्कृतभवः ।' –'देशीनाममाला' (२.२६) कणेरु (७०.१८) : 'करेणु' (सं.) का प्रा. वर्ण-विपर्यय-कणेरु; हस्तिनी। संघदासगणी
ने 'ण' का वर्ण-विपर्यय कई जगह किया है। अन्य उदाहरण हैं: ‘वाराणसी'
का 'वाणारसी'; 'जोव्वण' का 'जोवण्ण' आदि। कब्बड (३३.२२) : कर्बट (सं.); छोटा गाँव, कुनगर । मूलपाठ : 'कब्बडदेवया = दुष्ट
(हीन) देवता। कयवर (२४८.७) : [देशी] कतवार; कूड़ा-कतवार । विशेष द्र. 'देशीनाममाला'
(२.११)। करण (९४.१९) : करण (सं.); क्षेत्र, खेत । कलत्तगुरुयताए (१३५.२६) : कलत्रगुरुकतया (सं.), कलत्र, यानी नितम्ब की गुरुता ।
(भारीपन) के कारण। संघदासगणी ने कदाचित् पहली बार, नितम्ब के लिए 'कलत्र' का प्रयोग किया है। मूलपाठ है: 'इत्थीणं पुण कलत्तगुरुयताए पण्हियासु उविद्धाणि भवंति। [फिर, स्त्रियों के नितम्ब की गुरुता के कारण
ही उसकी एड़ी (बालू पर) अधिक गहरी उभरी होती है।] किइकम्म (२४.१९) : कृतिकर्म (सं.), वन्दना; प्रणाम ।