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परिशिष्टः १
कतिपय विशिष्ट विवेचनीय शब्द 'वसुदेवहिण्डी' में, संघदासगणी द्वारा प्रयुक्त ऐसे अनेक प्राचीन प्राकृत शब्द मिलते हैं, जो अपनी विविधता, विचित्रता और विशिष्टता की दृष्टि से विवेचनीय मूल्य रखते हैं, साथ ही प्राकृत के परवर्ती विकास की क्रमिकता के अध्ययन में भी जिनकी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका परिलक्षित होती है। यहाँ विहंगावलोकनन्याय से कतिपय विशिष्ट विवेचनीय विभिन्नवर्गीय (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रियाविशेषण, क्रिया आदि) शब्द अनुक्रम से उपन्यस्त हैं। इसमें प्रयुक्त पृष्ठ-संख्याएँ मुनि चतुरविजय-पुण्यविजय द्वारा सम्पादित भावनगर-संस्करण के अनुसार हैं।
[अ]
अंछवियच्छि (२७१.१७) : कृष्टविकृष्टिं (सं.), खींचतान । हेमचन्द्र ने भी आकृष्ट, अर्थात्
खींचने या काढ़ने के अर्थ में देशी शब्द 'अंछिय' का उल्लेख किया है :
'अंछियं च कड्डिअए ।'–'देशीनाममाला' (१.१४) अंछिय (२९१.२५) : आकृष्ट (सं.), खींचा, खींच लिया। मूलपाठ : 'अंछिओ खग्गो'
=(म्यान से) तलवार खींच ली या काढ़ ली। अंतेवासी (६२.७) : निकट में रहनेवाला; समीपवत्ती; पड़ोसी (प्रचलित अर्थ: शिष्य या
छात्र)। अइमुत्तयवल्लिदोलाए (४६.२५) : अतिमुक्तकवल्लिदोलायां (सं.) = माधवीलता के
हिंडोले पर। अगल्लिगा (९२.६) : अस्वस्थ (स्त्री) का अर्थवाचक यह शब्द कोई देश्य विशेषण-प्रयोग
प्रतीत होता है। अच्च (३०५.१६) : अर्चा (सं.); प्रतिमा। प्रतिमा के अर्थ में 'अर्चा' का उल्लेख कथाकार
का प्रतीकात्मक प्रयोग-वैशिष्ट्य है। अच्छुय (१८०.१) : [देशी]; अस्पृष्ट (सं.), विना छुआ हुआ, अनछुआ। अज्जिया (३६७.३) : आर्यिका (सं.), आजी; दादी; पिता की माता; पितामही
(लोकभाषा : अइया; इया) । सामान्य प्रचलित अर्थ : भिक्षुणी । अज्झोववाय (२९८.१५) : अध्युपपाद (सं.); अत्यन्त आसक्ति । अणाते : अणाए (१७९.१५) : अनया (सं.); इसके द्वारा; इससे । केवल सार्वनामिक ही
नहीं, तदितर शब्दों में भी 'य' की जगह 'त' वर्ण का विनियोग 'वसुदेवहिण्डी'
में सार्वत्रिक रूप से भूरिश: उपलब्ध। अणुसट्ठी (२८६.४): अनुशिष्टि (सं.), आगम के अनुकूल उपदेश । अणोयत्तं (१३८.२५) अवनतं (सं.); झुक गया। मूलपाठः 'अणोयत्तं से वयणकमलं' =
उसका मुखकमल झुक गया। यहाँ 'ण' का वर्ण-विपर्यय, जो 'वसुदेवहिण्डी'