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उपसमाहार
• अनुपात में त्याग-तपस्या की आवश्यकता पर भी बल दिया गया है। संघदासगणी ने सांस्कृतिक उत्कर्ष का जो आदर्श चित्र प्रस्तुत किया है, उसमें कहीं भी एकांगिता नहीं है । किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि इस महान् कथाग्रन्थ को, एकांगी दृष्टिकोण से, केवल रत्यात्मक कथा के रूप में भी देखा जाता है, जो इसकी उपेक्षा का कारण बन गया है। साथ ही, साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह के कारण भी संघदासगणी जैसे आदर्शोन्मुख यथार्थवादी महान् श्रमणाचार्य की इस महत्कृति का आजतक सही मूल्यांकन अपेक्षित ही रह गया है। इस कथाग्रन्थ की कामकथाएँ निश्चय ही प्रवृत्त्यात्मक हैं, किन्तु वे ही जब परिणाम में धर्मकथा बन जाती हैं, तब निवृत्यात्त्मक हो जाती हैं । इस प्रकार, प्रवृत्ति और निवृत्ति के साथ ही साम्प्रदायिक समन्वय की दृष्टि से 'वसुदेवहिण्डी' की कथाएँ उभयात्मक या समन्वयात्मक हैं ।
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'वसुदेवहिण्डी' में भारतीय संस्कृति के उच्चतम शिखर पर पहुँचने का मूल्यवान् प्रयास परिलक्षित होता है । साथ ही, इसमें वैसी भारतीय सभ्यता चित्रित हुई है, जिसके अन्तस्तल में वर्त्तमान आभ्यन्तर चेतना और संस्कृति भी प्रतिबिम्बित होती है। इस प्रकार, यह कथाकृति जीवन मूल्यों के सन्दर्भ में भारत का विशिष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं, जिसकी चरम परिणति वसुदेव में दिखाई गई है।
'वसुदेवहिण्डी' में भारतीय जीवन और संस्कृति का सर्वांगीण चित्र, अंकित किया गया है। व्यक्ति का जब स्वस्थ निर्माण होता है, तब वह सामाजिक प्राणी या योग्य पुरुषार्थी नागरिक बनता है और फिर वह अन्तर्मुख होकर चिन्तन-मनन करता है, श्रुत का अध्ययन और तप का आचरण करता है, जिसके फलस्वरूप वह अन्त में निर्भय भाव से शरीर का परित्याग करता है । इसी क्रम में मानव अपने तपोबल से स्वर्ग का अधिकारी होता है और मोक्षगामी भी बनता है । 'वसुदेवहिण्डी' में मानव-संस्कृति की इसी स्पृहणीय उदात्त कथा का विनियोग हुआ है । इसी कारण, 'धर्मशास्त्रों में बार-बार उद्घोषित धर्मार्थकाममोक्ष जैसे चतुर्विध पुरुषार्थ के सम्बन्ध में संघदासगणी द्वारा उट्टंकित पुनर्वक्तव्य और उसके उदाहरणार्थ उपन्यस्त की गई वसुदेव की कथा ततोऽधिक प्रतीकात्मक बन गई है। इस प्रकार, 'वसुदेवहिण्डी', सचमुच, भारतीय जीवन और संस्कृति की महानिधि एवं परम रमणीयोज्ज्वल महार्घ बृहत्कथा के रूप में प्रतिष्ठित है ।