________________
उपसमाहार यथाप्रस्तुत विवेचन-विवरण से यह नितरां स्पष्ट है कि कथाशास्त्रीय चेतना के अद्वितीय अधिकारी विद्वान् कथाकार आचार्य संघदासगणी ने अपनी महनीय कथाकृति 'वसुदेवहिण्डी' भारतीय प्रज्ञा के प्राय: प्रत्येक पक्ष को आत्मसात् किया है। इस ग्रन्थ के द्वारा ‘यनेहास्ति न तत्क्वचित्' उक्ति को अक्षरश: अन्वर्थता देनेव क्रान्तद्रष्टा कथ
थाकार ने भारतीय कथाशास्त्र के वैशिष्ट्य को उद्घाटित करने के साथ ही कथा का सार्वभौम स्वरूप उपस्थापित किया है । फलत: इस कथाग्रन्थ में कथा-पद्धति का एक समन्वित रूप प्रखर पाण्डित्य के धरातल पर उपन्यस्त हुआ है।
कथा-विवेचन की दृष्टि से 'वसुदेवहिण्डी' का अध्ययन भारतीय कथाक्षेत्र में एक नये क्षितिज का निर्देश करता है। कहना न होगा कि इस विशाल कथाकृति में चिन्तन के अनेक आयाम भरे पड़े हैं। इसलिए, कथा के आलोचकों के लिए प्रस्तुत महत्कथा का मनन और मीमांसा अनिवार्य है। गुणान्च की 'बृहत्कथा' की परम्परा में लिखे गये इस ग्रन्थ के अध्ययन के विना 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह', 'बृहत्कथामंजरी' तथा 'कथासरित्सागर' का अध्ययन अधूरा ही रहेगा। 'वसुदेवहिण्डी' की विशेषता इस अर्थ में है कि यह ग्रन्थ पूर्ववर्ती समस्त भारतीय संस्कृति और साधना के तत्त्वों में समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से लिखा गया है। ___ 'वसुदेवहिण्डी' इतिहास और कल्पना का अद्भुत मिश्रण है। इतिहास, कथाकार की निजी अनुभूति और कल्पना पर आधृत होता है। इसलिए, इस महान् ग्रन्थ को इतिहास से अधिक ऐतिहासिक तथ्यजन्य कल्पना का कथात्मक प्रतिरूप कहना अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि इसमें स्थूल ऐतिहासिकता की अपेक्षा कथाकार की अनुभूति और कल्पना की आत्मपरक अभिव्यक्ति ही अधिक उपलब्ध होती है।
प्रस्तुत प्राकृत-निबद्ध कथाग्रन्थ सम्पूर्ण भारतीय कथाक्षेत्र में अपनी महनीयता के लिए उल्लेख्य है । प्राकृत जैनकथा-साहित्य का तो यह भास्वर स्वर्णशिखर ही है। महाभारतोत्तर भारतीय कथा-साहित्य के आदिस्रोत के रूप में गुणाढ्य (ई. प्रथम शती) की पैशाची-भाषा में निबद्ध बट्टकहा ('बृहत्कथा') का अवतरण साहित्य-जगत् के लिए निश्चय ही एक अभूतपूर्व घटना है। दुर्भाग्यवश, ‘बड्डकहा' की मूलप्रति का विलोप तो हो ही गया, उसकी प्रतिलिपि की भी कहीं कोई चर्चा नहीं मिलती। कतिपय अन्तस्साक्ष्यों के अनुसार, यह कहने का आधार प्राप्त होता है कि बुधस्वामी (ई. द्वितीय शती)-कृत 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह', 'बड्डकहा' का ही ब्राह्मण-परम्पराश्रित संस्कृत-रूपान्तर है और संघदासगणी (ई. द्वितीय या तृतीय-चतुर्थ शती : आगम-ग्रन्थों का संकलन-काल) द्वारा रचित 'वसुदेवहिण्डी' श्रमण-परम्पराश्रित प्राकृत-रूपान्तर । कालनिर्णय-परक सुदृढ साक्ष्य के अनुपलब्ध रहने की स्थिति में, बहुश: कथासाम्य की दृष्टि से यह निर्णय करना कठिन प्रतीत होता है कि 'वसुदेवहिण्डी' तथा 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह', इन दोनों में कौन किसका आधारोपजीव्य है।
'वसुदेवहिण्डी' के चौथे नीलयशालम्भ (पृ. १६५) में कथाकार ने लिखा है कि मन्दर, गन्धमादन, नीलवन्त और माल्यवन्त पर्वतों के बीच बहनेवाली शीता महानदी द्वारा बीचोबीच विभक्त उत्तरकुरुक्षेत्र बसा हुआ था। शीता महानदी समुद्र के प्रतिरूप थी। कथा (कथोत्पत्ति :