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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा पृ.२३) है कि पुष्कलावती-विजय की पुण्डरीकिणी नगरी के चक्रवर्ती राजा वज्रदत्त की रानी यशोधरा को जब समुद्र में स्नान करने का दोहद उत्पन्न हुआ, तब राजा बड़ी तैयारी के साथ समुद्र जैसी शीता महानदी के तट पर पहुँचा। रानी यशोधरा ने उस महानदी में स्नान करके अपने दोहद की पूर्ति की। ___पुन: तीसरे गन्धर्वदत्तालम्भ में भी कथाकार ने इसी प्रकार की एक कथा लिखी है: पुराकाल में चम्पानरेश राजा पूर्वक अपनी रानी के समुद्रस्नान के दोहद की पूर्ति के लिए युक्तिपूर्वक प्रवाहशील जल से परिपूर्ण सरोवर का निर्माण कराया और उसे ही समुद्र बताकर रानी को दिखलाया। रानी ने उसमें स्नान करके अपनी दोहद-पूर्ति की और पुत्र प्राप्त करके वह प्रसन्न हुई। तब से रानी अपने मनोविनोद के लिए पुत्र और पुरवासियों के साथ सरोवर के पार्श्ववर्ती सुरवन की यात्रा करती रही और उसी यात्रा का अनुवर्तन बहुत दिनों तक होता रहा।
दोहद-पूर्ति के लिए रानी के समुद्रस्नान से सम्बद्ध एक कथा बुधस्वामी ने भी 'बृहत्कथाश्लोक संग्रह' (१९.२३-२७) में उपन्यस्त की है : चम्पा में अनुकूल पत्नीवाला एक राजा रहता था। उसने जब दोहद के विषय में पूछा, तब उसकी लज्जाशीला पली बोली : 'मैं आपके साथ मगर, घड़ियाल, केंकड़े, मछली, कछुए आदि से भरे समुद्र में क्रीडा करना चाहती हूँ।' अनुल्लंघनीय आज्ञावाले राजा ने शीघ्र ही मगध और अंगवासियों द्वारा (अनुमानत: अंगवाहिनी गंगा या संघदासगणी द्वारा उल्लिखित चन्दा)
नदी को बँधवाकर समुद्र के समान विस्तृत सरोवर का निर्माण कराया। उसमें यन्त्रचालित लकड़ी के मगर आदि जलजन्तु भर दिये गये और विमानाकार जलयान पर सवार होकर उन दोनों (राजा और रानी) ने उस कृत्रिम समुद्र में विहार किया। उसी समय से राजा ने कोकिलों से कूजित दिनों, अर्थात् वसन्तकाल में (प्रतिवर्ष) वहाँ यात्रा की प्रथा का प्रवर्तन किया।
'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' का यह प्रसंग 'वसुदेवहिण्डी' के प्रसंग का सुधारा हुआ या संशोधित रूप प्रतीत होता है। नदी में समुद्र की प्रतीति नहीं हो सकती; क्योंकि नदी प्राय: प्रवहमाण होती है, जब कि सागर का तट स्थिर होता है। अत:, विशाल हृद या झील में ही सागर की प्रतीति की सम्भावना अधिक है। इस प्रकार, 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' द्वारा किये गये भ्रम-संशोधन के आधार पर इस कथाग्रन्थ की 'वसुदेवहिण्डी' से परवर्तिता भी सिद्ध होती है। यद्यपि मन्दप्रवाहवाली झील या ह्रद की कल्पमा संघदासगणी ने भी की है : ('अहमवि निराधारो पडिओ हरए। तं च सलिलं मंदवह; (रक्तवतीलम्भ : पृ. २१७, पं. २८) । कहना न होगा कि वर्णन-वैचित्र्य और प्रसंग-योजना की निपुणता की दृष्टि से बुधस्वामी और संघदासगणी दोनों ही अतिशय दक्ष और सतर्क कथाकार प्रमाणित होते हैं। इसलिए, दोनों में से किसी की भी कथाबुद्धि को भ्रान्त कहना संगत नहीं होगा। जिस प्रकार, काव्य के क्षेत्र में कालिदास और अश्वघोष की पूर्वापरवर्त्तिता विवादास्पद बनी हुई है, उसी प्रकार बुधस्वामी और संघदासगणी की पूर्वापरवर्त्तिता के प्रसंग में विभिन्न मनीषियों का ऐकमत्य सहज सम्भव नहीं है। किन्तु, इतना तो निर्विवाद है कि ये दोनों ही कथाकार भारतीय स्वर्णकाल के कथाकारों में मूर्धन्य स्थान के अधिकारी हैं।
'वसुदेवहिण्डी' भारतीय संस्कृति के महासरोवर में खिला हुआ सहस्रदल कमल के समान है। इसलिए, इसमें पौराणिक कथाएँ, पारम्परिक विद्याएँ, राजनीति, राजनय और शासनतत्त्व, अर्थ-व्यवस्था, लोकजीवन, समाजतत्त्व और समाजरचना, ज्योतिष, आयुर्वेद, धनुर्वेद,