________________
वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व
५६३
(जो स्त्री, अपने पति की अधिक प्यारी नहीं होती, उसकी सन्तानें कुरूप और निस्तेज होती हैं, और जो प्यारी होती है, उसकी सन्तानें उसके पति के ही समान रूप और गुणवाली होती हैं 1.
५. सीहस्स दंता केण गणेयव्वा ? (१०७.८)
(सिंह के दाँतों को कौन गिन सकता है ? )
६. आभरणथाणमपत्तं रयणं विणासियं होइ । (१३२.३०)
·
(जो रत्न आभरण की जगह नहीं लेता, वह नष्ट, अर्थात् निर्मूल्य हो जाता है ।) ७. उच्छा सिरी वसति, दरिद्दो य मयसमो सयणपरिभूओ य धी जीवियं जीवइ ।
(१४५.२४-२५)
( उत्साह में श्री का निवास होता है, दरिद्र तो मृतवत् होता है, फिर स्वजन से अपमानित व्यक्ति तो धिक्कारपूर्ण जीवन जीता है ।)
८. सुहे जो न मज्जति दुक्खे य जो न सीयति सो पुरिसो, इयरो अवयरो । ( २४९.८-९) (जो न तो सुख में ही मग्न होता है और न दुःख में ही छटपटाता है, वही पुरुष है, उससे इतर तो अधम है ।)
तुल. : दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ।। (गीता २.५६)
९. जहा कोइ अण्णाणदोसेण अंगुलिं पलीवेडं परं डहेउकामो पुण अप्पाणं डहेइ ।
(२६३.४)
(अगर कोई अज्ञता या दोषवश दूसरे को जलाने की मंशा से अपनी उँगली जलाता है, तो वह फिर अपने को ही जला डालता है ।)
१०. जीएण वि कुणइ पियं मित्तत्ति । (२९१.९-१०) (मित्र अपना जीवन देकर भी भलाई करता है ।)
११. होंति तिवग्गम्मि पुणो, संखेवेण य तिहा भवे पुरिसा । मित्ता सत्तूय तहा मज्झत्था चेव ते तिन्नि ॥ ( २९१.१-२ )
(तीन वर्गों की दृष्टि से, पुरुष तीन प्रकार के होते हैं: मित्र, शत्रु और मध्यस्थ ।)
१२. रयणाणि रायगामीणि । (२१२.७)
रायगामीणि रयणाणि । (३२५.११)
(रत्न राजा के लिए होते हैं, अर्थात् रत्न राजा को ही शोभा देते हैं ।)
१३. पायसेसु घयधाराओ पलोट्टाओ, उज्जमेसु सिद्धीओ संघियाउ त्ति । (३१४.२१-२२) (खीर या पायस में घी की धाराएँ गिरीं और उद्यम में सिद्धियाँ आ मिलीं ।)