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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा (३५१.२१) आदि । इसी प्रकार कपाट से वक्षःस्थल के सादृश्य-निरूपण की परम्परा रही है, किन्तु संघदासगणी ने मणि की चट्टान से सादृश्य-प्रदर्शन किया है। जैसे : 'पवरमणिसिलातलोवमविसालवच्छो' (२०४.१९); 'मणिसिलायलोवमाणवच्छत्यलो' (२८०.२) आदि। कवि-प्रसिद्धि है कि चम्पक पर भौरे नहीं जाते, इसलिए चम्पक-पुष्प पर भौंरों के गुंजन करने का वर्णन प्राय: परम्परा-प्रचलित नहीं है (चम्पकेषु भृङ्गा न गच्छन्ति इति श्रुतिः) । किन्तु, संघदासगणी ने भ्रमरी द्वारा पुष्पित चम्पक-पादप के आदरपूर्वक सेवन किये जाने का वर्णन किया है। जैसे : ‘सा विसेसेण सेवइ में आयरेण पुष्फियमिव चंपयपायवं भभरी' (३५८.२६)। संघदासगणी ने सेतु के लिए 'संगम' शब्द का व्यवहार किया है। रामायण के प्रसंग में कथाकार ने लिखा है: 'तत्य य पव्वदंतसमुद्दमागयं, संधिम्मि संगमो बद्धो' (२४४.११) ।
'वसुदेवहिण्डी' की भाषा-शैली आगमिक भाषा-शैली के समान लयात्मक ( रिमिकल) और सहजप्रवाहमयी है, साथ ही जनसमूह में पढ़कर सुनाने के अभिप्राय से कथाकार ने अपनी भाषा को वक्तृता-शैली ('ऑरेटोरिकल स्टाइल') में उपस्थापित किया है।
सूक्ति-चमत्कार :
वर्णन में चमत्कार उत्पन्न करने के निमित्त सूक्तियों का प्रयोग प्राचीन कथा-परम्परा की उल्लेखनीय विशेषता रही है। 'वसुदेवहिण्डी' प्राचीन लोकवृत्ताश्रयी प्रेमाख्यान होने के कारण, सहज ही नैतिक शिक्षा का निरूपण करती है। नैतिक शिक्षा सहज ही सूक्तिबहुल होती है। संघदासगणी ने अपनी पद्यगन्धी भाषा में कथा-चमत्कार उत्पन्न करने की दृष्टि से नैतिक प्रसंगों के बीच सरस सूक्तियों का मनोहारी गुम्फन किया है, जैसे नीलकमलों के बीच लाल कमल खिले हों।
संघदासगणी ने कथा-वर्णन के क्रम में प्रेम, उपदेश, नीति, दृष्टान्त आदि विभिन्न विषयों का बोध करानेवाली अनेक सूक्तियाँ रची हैं, जिनमें कथाकार की निजी अनुभूतियों का उत्कृष्ट उद्भावन हुआ है। कतिपय सूक्तियाँ 'वसुदेवहिण्डी' से यहाँ उद्धृत हैं: १. जो वा सचक्खुओ उदिए सूरिए मूढयाए निमीलियलोयणो अच्छति तस्स निरत्यओ
आइच्चोदयो। (५२४-२५) (जो नेत्रवान् व्यक्ति सूर्य के उगने पर मूढतावश अपनी आँखों को बन्द किये रहता है, उसके लिए सूर्योदय निरर्थक है।)
२. परस्स अदुक्खकरणं धम्मो । (७६.५) ।
(दूसरे को दुःख से मुक्त करना ही धर्म है।) ३. रायाणो मज्जायारक्खगा। (९१.१०)
(राजा मर्यादा के रक्षक होते हैं।) ४. जाकिर इत्थिया भत्तुणो णहमया तीसे अवच्याणि मंदस्वाणि णित्तेयाणि भवंति।
जा पुण वल्लभा तीसे भत्तारसरिसरूवगुणाणि । (९७.५-६)