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वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व जैसी दुर्बलता, बहुत ढूँढ़ने पर भी, कदाचित् ही मिले। इसलिए, विषय और प्रसंगवश उन्होंने गौडी रीति का भी सफल प्रयोग किया है। इसमें उन्होंने साहित्यशास्त्रोक्त विधि के अनुसार यथाशक्ति अत्यधिक दीर्घ समास तथा ओज और कान्तिगुणों से युक्त वाक्यों का प्रयोग किया है। कठोर और लम्बे-लम्बे पद महाप्राण. वर्षों से रचे गये हैं। कथाकार द्वारा प्रयुक्त इस शैली में अर्थप्रौढि और बन्धगाढता देखते ही बनती है। एक-दो निदर्शनः
(क) “अहवा ओहिबिसएण पस्सिऊण परोप्परं पुव्वजम्मसुमरियवेराणुसया य पहरणाई सूल-लउङ-भिंडमाल-णाराय-मुसलादीयाणि विउरुबिऊण पहरंति एक्कमेक्कं... वहए य फरुसवयणेहिं साहयंता दुक्खाई दुट्ठा कोहुत्तयकूलसामलितिक्खलोहकंटयसमाउलं कलकलेंता कलुणं विलवंति।” (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २७१)
(ख) “वड्डमाणं तं पस्सिऊण भयविसंठुला अंतरा सिलाजालाणि पव्वयसिहराणि महंते पायवे पहरणाणि य खिवंति। ताणि य हुंकाराणिलसमुद्धयाणि समंतओ पणिवयंति। तं च अट्ठिपुव्वं महाबोंदि पस्समाणा किण्णर-किंपुरिस-भूय-जक्ख-रक्खस-जोइसालया महोरगा भीय-हित्थपत्थिया विलोलणयणा गलियाभरणा अच्छरासहाया 'को णु मो? कत्थ पत्थिओ? किं च काउकामो?' ति कायरा विरसमालंवता परोप्परं तुरियमुव्वहंता, तेहि य वेवंतसव्वगत्तेहिं संचारिमो मंदरो ब्व विम्हियमुहेहिं खहचरेहिं दिस्समाणो खणेण जोयणसयसहस्ससमूसिततणू जातो।” (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १३०)
(ग) “पेच्छामो य पंथम्मि ठियं पुरतो, अंजणपुंजनिगरप्पयासं, निल्लालिय-जमलजुयलजीहं उक्कड़-फुङ-वियङ-कुडिल-कक्खङ-वियडफडाडोवकरणदच्छं, तिभागूसियसरीरं, महाभोगंनागं। .... पेच्छामो य अपरितंतकयंतनिव्वडियदुक्खं, पुरतो पलंबतकेसरसढं, महल्लविफालियनंगूलं, रतुप्पलपत्तनियरनिल्लालियग्गजीहं आंभगुर-कुडिल-तिक्खदाढं, ऊसवियदीहनंगूलं, अइभीसणकरं वग्धं । (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ४५) ____ इस प्रकार के उदाहरणों से कथाकार संघदासगणी की रीति-रमणीय रचना-प्रतिभा का प्रौढ प्रमाण उपलब्ध होता है। प्रभाव के अनुसार, कथाकार ने कोमल, कठिन और मिश्र तीनों प्रकार की रीतियों की प्रयोगदक्षता का पुष्ट परिचय प्रस्तुत किया है। कहना न होगा कि संघदासगणी शब्दसागर के पारगामी कथाकार हैं। इसलिए, उन्होंने भाषा में सहज सम्प्रेषणीयता उत्पन्न करने में अभूतपूर्व सफलता अर्जित की है। उनकी भाषा की सम्प्रेषणीयता में ही प्रासंगिकता के शाश्वत आयाम सुरक्षित हैं। भाषा की सम्प्रेषण-शक्ति की सही पहचान के कारण ही उनकी शब्दचयन-पद्धति में विलक्षणता का विन्यास परिलक्षित होता है । इसके अतिरिक्त, वाणी को प्रभावपूर्ण और सम्प्रेषण की क्रिया को तीव्र करने के लिए यथापेक्षित प्रचलित प्रयोग की परम्परा से हटकर नये प्रयोगों के प्रति भी कथाकार का आग्रह सजग हुआ है।
उदाहरण के लिए, साहित्यिक वर्णन में, नीली आँखों की ही अधिकतर चर्चा हुई है, किन्तु संघदासगणी ने सफेद आँखों को ही सौन्दर्य का उपादान या प्रतिमान स्वीकृत किया है। जैसे: 'सभमरपोंडरीयपलास (पुण्डरीकपलाश : श्वेतकमलदल)-लोयणो' (२८०.१-२); 'पुंडरियवियसियनयणो' (१६२.२), 'सेयपुंडरीकोपमाणि लोयणाणि (३५३.१२-१३), "निरंजणविलासधवलनयणा'