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वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व का विषय है। यहाँ स्थालीपुलाकन्याय से ही कतिपय प्रतीकों का दिग्दर्शन उपस्थापित किया गया है।
निष्कर्षः
रूप में यह ज्ञातव्य है कि 'वसुदेवहिण्डी' में सौन्दर्य, कल्पना, बिम्ब और प्रतीकों की दृष्टि से सौन्दर्यशास्त्रियों के लिए प्रचुर अध्येतव्य सामग्री समाहित है। एक व्यक्ति के लिए सम्पूर्ण 'वसुदेवहिण्डी' के सौन्दर्यशास्त्रीय या ललितकलामूलक सन्दर्भो को एक साथ ध्यान में रखकर उनका प्रामाणिक विवेचन करना दुस्साध्य सारस्वत साधना है। कहना न होगा कि संघदासगणी की महान् कथाकृति 'वसुदेवहिण्डी' भाषिक और साहित्यिक कला के चरम विकास के उत्तमोत्तम निदर्शनों का प्रशस्य प्रतीक है।
(ग) भाषा की संरचना-शैली एवं अन्य साहित्यिक तत्त्व 'वसुदेवहिण्डी' की कथाबद्ध भाषा सातिशय विलक्षण है । इस कथाग्रन्थ की भाषा काव्यभाषा के आस्वाद की समानान्तरता उपस्थित करती है। इसीलिए, इसकी भाषा काव्यभाषा की भाँति सहृदयों का ध्यानाकर्षण करती है। इसकी भाषा की संरचना-शैली अलंकृत है । वैदर्भी रीति में प्रसादगुण के साथ प्राय: छोटे-छोटे या नातिदीर्घ वाक्यों में पात्रों के सहज आलाप गुम्फित हैं। किन्तु, नख-शिख-वर्णन आदि सौन्दर्यमूलक प्रसंगों के लिए कथाकार ने अतिशय अलंकृत भाषा के प्रयोग में भी अपनी चूडान्त दक्षता का प्रदर्शन किया है। ऐसे अवसरों पर कथाकार ने काव्यशास्त्र के प्राय: सारे अंगों को अपनी गद्य-रचना का उपादान बनाया है। उनके गद्य के निबन्धन में प्रांजलता और प्रवाहशीलता, दोनों ही उदात्त गुणों का सहज समावेश हुआ है । फलत: उसमें शब्द, अर्थ और भाव-तीनों का आनुक्रमिक साहचर्य मिलता है। कथाकार ने 'वसुदेवहिण्डी' द्वारा केवल उत्कृष्ट भारतीय जीवन का ही चित्रण नहीं किया है, अपितु कथा को शाश्वतता प्रदान करनेवाली आदर्शमूलक भाषा का भव्यतम प्रतिमान भी प्रस्तुत किया है।
सहजता और सरसता 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा की ततोऽधिक उल्लेखनीय विशेषता है। यहाँतक कि समासबहुला गौडी शैली में निबद्ध अलंकृत गद्यांश की पदशय्या भी अपनी तरलता की मोहकता से आविष्ट कर लेनेवाली है । कथोचित लघुवाक्यों के अतिरिक्त शताधिक वर्णों वाले महावाक्यों का भी प्रयोग कथाकार ने किया है। पूरी 'वसुदेवहिण्डी' में सबसे बड़ा महावाक्य लगभग एक सौ ग्यारह वर्णों का प्रयुक्त हुआ है, जो इस प्रकार है:
'मत्तंगय-भिंग-तुडिय-दीवसिह-जोइ-चित्तंग-चित्तरस-चित्तहारि-मणियंग-गेहसत्यमत्यमाधूतिलगभूयकिण्णकप्पपायवसंभवमहुरमयमज्जभायणसुइसुहसहप्पकासमल्लयकारसातुरसभत्तभूसण-भवण-विकप्प-वरवत्थपरिभोगसुमणसुरमिहुणसेविए' (नीलयशालम्भ : पृ.१५७) ।
इससे कुछ कम वर्णोंवाले महावाक्य भी हैं। जैसे : 'महु-मदिरा-खीर-खोदरससरिसविषलपागडियतोय-पडिपुण्णरयणवरकणयचित्तसोमाणवावि-पुक्खरिणी-दीहिगाए' (तत्रैव); 'पक्कीलमाणतण्णगगिट्ठिहुंवरपाणुणाइयगोवीजणमहुरगीयसागरगंभीरतरसणोवसूइज्जमाणत्थाणं (बन्धुमतीलम्भ : पृ.२६९) आदि।