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________________ ५५६ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा स्पष्ट ही, ये काम-तत्त्व धर्म-प्रतीक में परिवर्तित होकर कथाकार की उदात्त अनुभूति या मनोदशा की अभिव्यंजना करते हैं। इसी प्रकार, कथाकार ने ललितागंद की कथा (तत्रैव : पृ.१०) की, सार्थवाहपुत्र ललितांगद और रानी ललिता के वासनादग्ध जीवन से सम्बद्ध विषय-वस्तु में उपन्यस्त काम-तत्त्वों को गर्भवास-दुःख के प्रतीकों में परिणत किया है। जैसे : “जहा सो ललियंगतो, तहा जीवो। जहा देवी-दरिसणसंबंधकालो, तहा मणुस्सजम्मं । जहा सा चेडी, तहा इच्छा। जहा वासघरे पवेसो, तहा विसयसंपत्ती। जहा रायपुरिसा, तहा रोगसोय-भय-सी-उण्हपरितावा। जहा कूवो,तहा गब्भवासो। जहा भुत्तसेसाहारपरिक्खेवो, तहा जणणिपरिणामियऽन्न-पाणापरिसवादाणं। जहा निग्गमो, तहा पसवसमतो। जहा धाई तहा देहोपग्गहकारी कम्मविवागसंपत्ती।" पुन: कथाकार द्वारा 'महुबिंदुदिटुंत' (पृ. ८) और 'महिसाहरण' (पृ. ८५) शीर्षक कथाओं में वर्णित प्राकृतिक उपादानों को धर्म-प्रतीक के रूप में उपन्यस्त किया गया है। 'महुबिंदुदिटुंत' के प्रतीक द्रष्टव्य हैं : ___“जहा सो पुरिसो, तहा संसारी जीवो। जहा सा अडवी, तहा जम्म-जरा-रोग-मरणबहुला संसाराडवी। जहा वणहत्थी, तहा मच्चू । जहा कूवो, तहा देवभवो मणुस्सभवो य। जहा अयगरो, तहा नरअतिरियगईओ। जहा सप्पा, तहा कोध-माण-माया-लोभा चत्तारि कसाया दोग्गइ-गमणनायगा। जहा परोहो, तहा जीवियकालो। जहा मूसगा, तहा कालसुक्किला पक्खा राइंदियदसणेहिं परिक्खिवंति जीवि। जहा दुमो, तहा कम्मबंधणहेऊ अन्नाणं अवरति मिच्छत्तं च । जहा महुं तहा सद्द-फरिस-रस-रूप-गंधा इंदियत्था। जहा महुयरा, तहा आगंतुया सरीरुग्गया यवाही।" - 'महिसाहरण' के धर्म-प्रतीक इस प्रकार हैं : जहा सा अडवी, तहा संसाराडवी, उदगसरिसा आयरिया, मिगसरिसा धम्मसवणाभिलासिणो पाणिणो। __उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि कथाकार द्वारा कल्पित प्रतीक निरन्तर परिवर्तनशील हैं। जैसे, 'कूप' को उन्होंने गर्भवास तथा देव और मनुष्य-भव दोनों प्रकार के प्रतीकों के रूप में प्रस्तुत किया है। प्रतीकों की इसी परिवर्तनशीलता को देखकर प्रतीकवादियों ने यह मान्यता स्थिर की है कि प्रत्येक संवेग और संवेदन के स्वरूप में व्यक्ति की चेतना के गति-सातत्य की भिन्न स्थितियों के कारण प्रतिपल परिवर्तन होता रहता है। कथाकार संघदासगणी प्रतीक वैविध्य के प्रयोक्ता हैं। उनके कथाकार के व्यक्तित्व की अपनी वक्रताएँ तथा संवेग, संवेदन और रचना के क्षण की निजी विशेषताएँ हैं । इसीलिए, उन्होंने प्रतीकों के निर्माण में अपने व्यक्तित्व और अनुभूतियों की विशिष्टता के अनुरूप अभिव्यक्ति के विभिन्न आयामों का अन्वेषण और पुन: उनका निर्धारण किया है। इसी कारण, उन्हें नूतन प्रतीकों के प्रयोगों की अनिवार्यता से गुजरना पड़ा है। फलतः, उनके कतिपय प्रतीकों के अर्थ तो निश्चित हैं, किन्तु कतिपय प्रतीक अनिश्चित अर्थवत्ता के व्यंजक, अतएव आयास-ग्राह्य (जैसे : रात और दिन का चूहे के दाँत के रूप में प्रतीकीकरण) हो गये हैं। समष्टि-रूप में देखें, तो पूरी 'वसुदेवहिण्डी' की कथायात्रा, प्रेम और वैराग्य-भावों के उद्योतक प्रतीकों का आकर है। इसी प्रकार, संस्मरण, औपम्य, सादृश्य और बिम्बमूलक प्रतीकों के भी निदर्शन 'वसुदेवहिण्डी' में प्राप्य हैं। इन प्रतीकों का विशद-गम्भीर अध्ययन स्वतन्त्र शोध-प्रबन्ध
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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