________________
वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व
विश्वनाथ कविराज द्वारा अर्थान्तरसंक्रमितवाच्य ध्वनि के उदाहरण में 'गाथासप्तशती' की यह गाथा (२.७५ ) प्रस्तुत की गई है :
धम्म वीसत्यो सो सुणओ अज्ज मारिओ देण । गोलाणइकच्छकुडंगवासिणा दरअसी ॥
५५५
यहाँ नायिका के नायक से विश्वस्त मिलन में शुनक (कुत्ता) विघ्न-कर्ता का प्रतीक है, तो दृप्तसिंह विघ्ननिवारक का । इस प्रकार, काव्यशास्त्रियों ने ध्वनि - विवेचन के प्रसंग में अनेक ध्वन्यर्थमूलक प्रतीकों का प्रयोग किया है। कहना यह है कि प्रतीकों का परिप्रेक्ष्य बड़ा व्यापक है और ये नित्य और कल्पित या निश्चित और अनिश्चित अर्थों के द्योतक होते हैं ।
कुछ विचारकों ने प्रतीक को उपमा, रूपक और अन्योक्ति से भी जोड़ा है । किन्तु, प्रतीक न तो केवल ध्वनि है, न ही अलंकार - मात्र । यह तो इन सबसे भिन्न है । इसे विशिष्ट शब्दशक्ति कहा जा सकता है । सम्पूर्ण अर्थ - सन्दर्भ की व्यापकता या असीमता को व्यक्त करने की शक्ति से सम्पन्न शब्द ही प्रतीक बन जाता है, जब कि उपमा, रूपक और अन्योक्ति का अर्थ-विधान सीमित होता है । डॉ. कुमार विमल' ने पौरस्त्य और पाश्चात्य विद्वानों मतों के परिवेश में, उपमा, रूपक और अन्योक्ति के साथ प्रतीक का पार्थक्य- विश्लेषण करते हुए लिखा है कि प्रतीक प्राय: अनिर्धारित बिम्ब हुआ करते हैं, जिनका कभी न रीतनेवाला अर्थ भी विशेष ढंग से सुनिश्चित रहता है, जब कि उपमा, रूपक और अन्योक्ति में अर्थ की नमनीयता बनी रहती है । कुल मिलाकर, प्रतीकार्थ को केवल अलंकारों या चिह्नविशेषों की ईदृक्ता और इयत्ता में परिमित नहीं किया जा सकता ।
घासणीद्वारा प्रयुक्त कतिपय शब्द-प्रतीकों का उपस्थापन इसी ग्रन्थ के 'कथा के विविध रूप' प्रकरण में किया गया है । उनके अन्य प्रतीकों में स्वप्न प्रतीकों तथा दोहदों का उल्लेखनीय महत्त्व है। तीर्थंकरों या श्रेष्ठ पुरुषों की माताएँ प्रायः महास्वप्न देखती हैं, जो उत्तम पुत्र की प्राप्ति
प्रतीक हैं। या फिर, शुभ या अशुभ दोहद उत्कृष्ट या निकृष्ट सन्तान की प्राप्ति का प्रतीक है। इस प्रकार, कथाकार ने महास्वप्न और दोहद के प्रतीक-विधान द्वारा पुत्र रूप में महापुरुष की प्राप्ति तथा भावी सन्तान की उच्चावचता की संकेत - व्यंजना की है, जिसकी अभिव्यक्ति प्रचलित माध्यमों सीमित रहने के कारण सम्भव नहीं थी । इसलिए इसे कथाकार ने प्रतीक - माध्यम से व्यक्त किया है।
I
कथाकार ने अपनी दृष्टान्त-कथाओं (जैसे, महुबिंदुदिट्टंत,' 'इब्भपुत्तकहाणय' आदि) में स्वानुभूति के अकथनीय अंशों को प्रतीक के द्वारा कथनीय और प्रेषणीय बनाया है । कामकथा की वस्तुओं को धर्म-प्रतीकों में उपन्यस्त करके कथाकार ने यथाप्रयुक्त प्रतीकों के प्रतीकत्व को सुरक्षित. रखने के लिए उनके नये अन्वेषणों के पौनःपुन्य का सचेष्ट निर्वाह किया है । 'इब्भपुत्तकहाणय' (कथोत्पत्ति : पृ. ४) का प्रतीकोपन्यस्त उपसंहार इस प्रकार है :
“जहा सा गणिया, तहा धम्मसुई । जहा ते रायसुयाई, तहा सुरमणुयसुहभोगिणो पाणिणो । जहा आभरणाणि तहा देसविरतिसहियाणि तवोवहाणाणि । जहा सो इब्धपुत्तो, तहा मोक्खकखी पुरिसो । जहा परिच्छाकोसल्लं, तहा सम्मन्नाणं । जहा रयणपायपीढं, तहा सम्म - हंसणं । जहा रयणाणि तहा महव्वयाणि । जहा रयणविणिओगो, तहा निव्वाणसुहलाभो त ।” १. 'सौन्दर्यशास्त्र के तत्त्व' (वही): पृ. २५६ - २६०