________________
५५८
वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा संघदासगणी द्वारा प्रयुक्त इस प्रकार की तरल प्रांजल गद्यशैली परवर्ती बाणभट्ट की महत्कथाकृति 'कादम्बरी' की गद्यशैली की निश्चय ही अनुप्राणिका बनी होगी। कथाकार संघदासगणी की भाषा में निहित वर्ण-विन्यास की वक्रता ने अद्भुत नाद-सौन्दर्य की सृष्टि की है। अनुप्रास, यमक आदि शब्दालंकारों तथा उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अर्थालंकारों एवं विभिन्न वृत्तियों और रीतियों के प्रयोग द्वारा कथाकार ने अनुपम वर्ण-चमत्कार का विधान किया है। वर्णों की चयन-मनोरमता, विविधता और श्रुतिपेशलता, साथ ही शब्दार्थ की पुंखानुपुंख योजना 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा की अपनी विशेषता है। इसके अतिरिक्त, कथाकार ने अनेक वर्णों की आवृत्ति से भाषा में प्रचुर अनुरणनात्मकता भी उत्पन्न की है।
'वसुदेवहिण्डी' की भाषा-संरचना में विविध वक्रताओं का मनोज्ञ-मंजुल समाहार हुआ है। जैसे 'विमउलवरपंकयसरिसनाभी' (१७६.४-५) में नाभि का सौन्दर्यसूचक सादृश्यमूलक शब्द 'पंकज' यदि पुंलिंग है, तो 'नाभि' स्त्रीलिंग। इसी प्रकार, ‘महद्दहावत्तवियरनाही' (३४९.६) एवं 'सलिलगुरुवारिधरणिणयहिययहरमहुरवाणी' (३४०.१८) में सादृश्यमूलक ‘महद्दह' (महाह्रद) शब्द पुंलिंग है, तो उपमेय 'नाभि' शब्द स्त्रीलिंग। पुन: दूसरे सौन्दर्य-चित्र के प्रयोग में सादृश्यसूचक उपमान ‘गुरुवारिधर' शब्द पुंलिंग है, तो उपमेय ‘मधुरवाणी' स्त्रीलिंग। और फिर, 'तुसिणीया परिसा थिमियसागरो इव ट्ठिया' जैसे सूचीपात नीरवता के सूचक प्रयोग में उपमान 'स्तिमितसागर' यदि पुंलिंग है, तो उपमेय ‘परिषद्' स्त्रीलिंग।
___ इस प्रकार, कथाकार ने अपनी भाषा को यत्र-तत्र लिंग-वैचित्र्य की वक्रता से भी विभूषित किया है। कुन्तक ने काव्यभाषा के विवेचन के सन्दर्भ में विशेषण-वक्रता का भी उल्लेख किया है। विशेषण-वक्रता में विशेषण के माहात्म्य द्वारा क्रिया अथवा कारक की रमणीयता प्रकाशित होती है । जैसे : 'सुरहिधूवगंधगब्मिणं च पस्सामि दीवंमणिपगासियं विमाणभूयं पासायं' (पृ. २७९.२०-२१) । यहाँ प्रासाद के सुरभिधूपगन्धगर्भी, दीपमणिप्रकाशित और विमानभूत विशेषणों के माहात्म्य से देखने की क्रिया में रमणीयता का उद्भावन हुआ है। इसी प्रकार, 'सारयससिदिणयराणुवत्तिणीहिं कंतिदित्तीहि समालिंगियं' (पृ.३.४-५), 'पेच्छति य पुरओ हरियपत्त-पल्लव-साहं बहुरुक्खोवसोहियं वणप्पएस' (६७.२५); 'तम्मि य समए उवगतो माहणो धोयधवलबहुलंबरधरो कणियारकेसर-नियरगोर-समुवचियसरीरो' (२८०.१५-१६); 'कुसुमियअसोयपायवसंसिया मंदमारुयपकंपिया इव लया पणच्चिया' (१५५.२७); 'तुरियनिनायमंगलसदाभिनंदियाणि रायलंकियाणि उवगयाणि सण्णेऽझं वेयं' (२८०.२१-२२) आदि अनेकानेक विशेषण-वक्रताएँ 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा के वैशिष्ट्य-विभावन के सन्दर्भ में उदाहर्तव्य
हैं।
संघदासगणी ने अपनी भाषा में कारक-वक्रता के भी अनेक प्रयोग किये हैं। जैसे : ‘पाभाइए सीयलेणं वाएणं आसासिओ धम्मिल्लो' (३४.१) । यहाँ अचेतन शीतल प्रातर्वायु का आश्वस्त करने की क्रिया द्वारा चेतनवत् वर्णन हुआ है। अचेतन में चेतन का अध्यारोप कारक वक्रता का लक्षण है। इस प्रकार, यह वक्रता उपचार-वक्रता (अमूर्त का मूर्तीकरण) तथा मानवीकरण से भी साम्य रखती है। कारक-वक्रता के कतिपय अन्य उदाहरण भी द्रष्टव्य हैं : ‘वाएण समाहओ मुच्छिओ ललियंगओ' (१०.५); 'तम्हा लोगट्ठिी विसयाणुकूलवाइणी' (१५.४), 'उप्पाइयमा-रुयाहओ विणट्ठो सो पोतो' (१४६.१२); 'ततो जओ दाहिणो वाऊ अणुयत्तो भवइ ततो सो (वेत्तो) उत्तरं संछुभइ' (१४८.२१२२); अतिच्छिया मे रयणी सुहेण पवियार-सुहसणाधा' (१८०.१२) आदि-आदि ।