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वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व धयसमूह, मुहमारुयपुण्णसंखसणाविद्धकलकलरूवं, ओसारियदाणपदमत्तगयविसाणसंघट्टपयट्टहुडंकणं, तूरवियतुरंगखरखुरक्खयक्खितिरयपडिरुद्धनयणविसयं जायामरिसभडमुक्कसरनिवहच्छण्णदिवसकरकर' (३६५.५-८), 'कण्णा य कमलनिलया विव सुरूवा घणपडलनिग्गयचंदपडिमा इव कित्तिमती लक्खणसत्थपसत्थरूवाइसया जोइप्पहा नाम'; 'सुरकुमारो विव मणोहरसरीरो घणपडलविणिग्गतो विव दिवायरो तेयस्सी अमियतेओ नाम'; दुहिया य सच्छंदवियप्पियरूवधारिणीण सुरसुंदरीण विम्हियकरी चिरकालवण्णणीयसरीर-लक्खण-गुणा सुतारा नाम' (३१३.२५-२९) आदि-आदि। इसी क्रम में रौद्र-बिम्ब का एक उत्तम उदाहरण द्रष्टव्य है : 'आसुरुत-कुवियचंडिक्किओ तिवलितं भिउडिं काऊण निराणुकंपो तं दारगं लयाए हंतुं पयत्तो' । (७५.१४-१५)
उपर्युक्त समस्त प्रयोग रूप, रस, शब्द, स्पर्श और गन्ध-बिम्ब के उत्तम निदर्शन हैं। इनमें कथाकार की सूक्ष्म भावनाओं या अमूर्त सहजानुभूतियों को बिम्ब-विधान के द्वारा मूर्तता अथवा अभिव्यक्ति की चारुता प्राप्त हुई है। इन विभिन्न बिम्बों में कथाकार के घनीभूत संवेगों का संश्लेषण समाहित है। ये सभी बिम्ब स्रष्टा की चित्तानुकूलता से आश्लिष्ट हैं, इसलिए चित्रात्मक होने के साथ ही अतिशय भव्य और रसनीय हैं।
निष्कर्ष :
बिम्ब-विधान के सन्दर्भ में संघदासगणी की भाषा ने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है । कहना न होगा कि कथाकार की भाषा सहज ही बिम्ब-विधायक है । कथाकार की कथा-साधना मूलत: भाषा की साधना का ही उदात्त रूप है। इसलिए, 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा यदि अनन्त सागर के विस्तार की तरह है, तो उससे उद्भूत विभिन्न बिम्ब लहरों की भाँति उल्लासकारक और हृदयाह्लादक हैं। वाक् और अर्थ की समान प्रतिपत्ति की दृष्टि से संघदासगणी की भाषा की अपनी विलक्षणता है। यही कारण है कि 'वसुदेवहिण्डी' भाषिक और आर्थिक दोनों प्रकार के बिम्बों की विभुता से आपातरमणीय हो गई है। बहिरंग और अन्तरंग दोनों दृष्टियों से, या अभिव्यक्ति और अनुभूति के विचार से कथाकार द्वारा निर्मित बिम्ब व्यापक भावसृष्टि की क्षमता तथा आत्मसम्मोहन की दिव्यशक्ति से परिपूर्ण हैं। इस प्रकार, कथाकार-कृत समग्र बिम्ब-विधान सहजानुभूति की उदात्तता का भव्यतम भाषिक रूपायन है, जो इन्द्रिय-बोध की भूमि से अतीन्द्रिय सौन्दर्य-बोध की सीमा में जाकर नि:सीम बन गया है।
प्रतीक :
कथाकार संघदासगणी की कल्पनातिशयता से निर्मित बिम्बों ने कहीं-कहीं, प्रयोग की बारम्बारता या भूयोभूयता से किसी निश्चित अर्थ में निर्धारित हो जाने के कारण, प्रतीकों का रूप ग्रहण कर लिया है। बिम्ब और प्रतीकार्थ के ग्रहण में बुद्धि की तरतमता अपेक्षित होती है। प्रतीक ग्रहण ग्रहीता की ग्राहिका शक्ति के आधार पर विभिन्न रूपों में सम्भव है। क्योंकि, प्रत्येक ग्रहीता की चेतना और संवेदना की दृष्टि भिन्न हुआ करती है। बौद्धिक चेतना और अनुभूतिगत संवेदना को प्रतीकों में बाँधना मनुष्य का सहज स्वभाव है। इसीलिए, पाश्चात्य चिन्तकों ने प्रतीक-सर्जना को मनुष्य की बुद्धि का व्यापार या चिन्तन-प्रणाली और क्रिया का एक आवश्यक