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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा पेज्जगीय-वाइय-हासरवसहवोमीसेणं' (४६.२२); 'वियसियसयवत्तपत्तलदलत्थो' (मंगलाचरण : १.७); 'कमलकुमुदोप्पलोवसोहियं' (६७.२६), 'पसण्ण-सच्छसीयलजलपाणियं' (६७.२६), 'समुप्पण्ण-केवलनाणविधुतर-मलो' (११८.२३ -२४), 'घण-मणदइयधूवधूविओ' (३९४.११); 'विगयपावकलिमलो' (३४४.४); विम-ससिकंत-पउमाऽरविंद-नील-फलिहंक-थूभियाए' (३४७.१४) आदि-आदि।
__सार्वनामिक प्रयोग : प्राकृत में 'अस्मद्' शब्द की तृतीया के एकवचन में 'मइ' या 'मए' या 'ममए' का बहुधा प्रयोग होता है, किन्तु संघदासगणी ने संस्कृत की भाँति ‘मया' का भूरिश: प्रयोग किया है। जैसे : 'मया भणियं', 'मया चिंतियं', 'मया सम्मत्तं लद्धपुव्वं' आदि। इस प्रकार के कर्मवाच्यपरक प्रयोग पूरे ग्रन्थ में यत्र-तत्र सर्वत्र उपलब्ध होते हैं। 'वसुदेवहिण्डी' में कर्मवाच्य
और भाववाच्य की वाक्यशैली की प्रचुरता है। प्राकृत में षष्ठी विभक्ति नहीं होती। चतुर्थी, षष्ठी की स्थानापन्न होती है। षष्ठीपरक अर्थ-द्योतन के लिए प्राकृत में 'युष्मद्', शब्द का रूप बहुधा 'तुव' या 'तुह' होता है। किन्तु, संघदासगणी ने 'तुह' के अतिरिक्त संस्कृत की भाँति 'तव' का भी प्रयोग किया है। जैसे : अहं तव जीवियकयक्कीओ दासो त्ति' (पृ.१३९) । 'तव पाएसु घोलइ त्ति' (पृ.२७८)। 'तव पुत्तस्स डंडवेगस्स' (पृ.२४५), आदि-आदि ।
- अव्यय-प्रयोग : समानतासूचक संस्कृत के 'इव' अव्यय शब्द के लिए प्राकृत में प्राय: 'विव', 'पिव' 'व' या 'व्व' आदि का प्रयोग होता है, किन्तु संघदासगणी ने समानवाची इन प्राकृतोक्त शब्दों के अतिरिक्त संस्कृत की भाँति 'इव' का भी भूरिश: प्रयोग किया है। कतिपय उदाहरण : ‘मरालगोणो इव मन्दगमणो' (पृ.२२१); 'सुमिणमिव पस्समाणो पसुत्तोम्हि' (पृ.२२६); 'कणेरुसहियस्सेव गयवरस्स'(पृ.३५५), 'कुमुददलमयं दिसावलिमिव कुणमाणी' (पृ.१९३); 'घणपडलनिग्गयचंदपडिमा इव कित्तिमती' (पृ.३१३) आदि-आदि । संस्कृत के 'ततो' अव्यय का तो पूरे ग्रन्थ में सार्वत्रिक प्रयोग कथाकार ने किया है। __इसके अतिरिक्त, कुछ प्रयोग तो ऐसे हैं, जो थोड़ा-बहुत ध्वनि-परिवर्तन के साथ संस्कृत से प्राकृत में अनुवर्तित जैसे लगते हैं। इस सन्दर्भ में रायलक्खणोवयेयं (पृ.२१७); नेव्वाणफलभागिणी (पृ.२१७); रोसहुयासणजालापलीवियं (पृ.२६३); जुवतिजणसाररूवनिम्मिया (पृ.२६५); विकयारविंदमयरंदलोलछच्छरणमुदियमुणमुणमणहरसरे (पृ.२६९); चउरंगुलप्पमाणकंबुगीवो (पृ.१६२); करिकराकारोरुजुयलो (पृ.१६२), हेमघंटिकाकिणकिणायमाणं (पृ.२४६), असोगतरुवरस्स (पृ.२५१); कुल-रूव-जोव्वण-विभववंतो (पृ.२२१); पूजित-कोमलचलणारविंद (पृ.७८); गूढसिरहरिणजंघा (पृ.७७); तुरगपरिकम्मकुसलो (पृ.३६); पिउमाउविपत्तिकारणं (पृ.३१); परितोसवियसियाणणा (पृ.५); सिरीसकुसुमसुकुमालसरीरा (पृ.१९८); परमपरितोसविसप्पियनयणजुयलेण (पृ.२००) आदि-आदि।
प्राकृत की मूलभाषा अर्द्धमागधी में संस्कृत के समान तद्धित-प्रत्यय भी होते हैं, जो प्राय: पाँच प्रकार के हैं : अपत्यार्थक, समूहार्थक, भवार्थक, स्वार्थिक, मतुबर्थक और अनेकार्थक । 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा में प्रायः उक्त सभी तद्धित-प्रत्यय उपलब्ध होते हैं। प्रत्येक वर्ग से दो-एक उदाहरण द्रष्टव्य :
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