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वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व
५१७ संस्कृत-व्याकरण का प्रभाव :
'वसुदेवहिण्डी' की भाषा पर व्याकरण और वर्तनी की दृष्टि से संस्कृत की प्रवृत्ति भी स्पष्ट है। वर्तनी में, समस्त तथा व्यस्त शब्दों में सन्धि एवं अनुस्वार की जगह पंचम वर्ण का प्रयोग भी यत्र-तत्र दृष्टिगत होते हैं। कुछ शब्द तो ऐसे भी हैं, जिनमें स्वयं मूलग्रन्थ के सम्पादकों ने ही प्रश्नचिह्न लगा दिये हैं।
समस्त तथा व्यस्त शब्दों में सन्धि : पवहणाभिरूढो (पृ.३); रहमारुहिऊण, नगरमागतो (पृ.३); गालणोवायं (पृ.११); पुत्तमणुसरंतो (पृ.१९); वेरग्गमग्गमोइण्णो (पृ.१९); रायाणुरूवेणं (पृ.२९); पुणरवि (पृ.४७), कोसंबिमागओ (पृ.५९), वेलमइक्कमइ (पृ.७८); विमाणोवमो (पृ.७९); एयमासणं (पृ.९५), देवोवयणनिमित्तं (पृ.१११); दीवुज्जोवं (पृ.१२६); कडगमाणेऊण (पृ.१२७); गहणमतिगओ (पृ.१४५), वेदसत्थोवदेसस्स (पृ.१५३); मोहमुवगया (पृ.१६५); सयंपभाहिहाणं (पृ.१६५), तित्थयराभिसेएण (पृ.१८३); विसयसुहमणुभवंतस्स (पृ.२०५); सयमागया (पृ.२१३); रायलक्खणोवयेयं (पृ.२१७), कुवियाणणा (पृ.२४१); कारणमासज्ज (पृ.२६२); थाण-माणारिहो (पृ.२६३), नियग-. बलमासासयंतो (पृ.३१२) रोसभरावियनयणेण (पृ.३१५); ईसाणिंदो (पृ.३३१); सामण्णमणुपालेड (पृ.३४३), खत्तियाणुमएण (पृ.३६५), सालमचाएतस्स (पृ.३७०) आदि-आदि। __पंचमवर्ण न-युक्त वर्तनी : पत्तिज्जिहिन्ति (पृ.३०, पं.३०), 'दिति-पयाग' न्ति वुच्चति तित्थं (पृ.१९३, पं.११), कन्दमूलफलाहारा (पृ.२१४, पं.३०), वन्तामयस्स (पृ.२८६, पं.१८), आजम्ममरणन्ति पृ.३०४, पं. १३); ओयविन्तेण (पृ. २६५, पं. २) आदि ।
वर्तनी के सम्बन्ध में यह भी ध्यातव्य है कि 'वसुदेवहिण्डी' के यथाप्राप्त भावनगर संस्करण में पूर्ण विराम (1) और अल्पविराम) का प्रयोग तो किया ही गया है, अल्पविराम के लिए अंगरेजी के फुलस्टॉप () का भी प्रचुरता से प्रयोग हुआ है। साथ ही, व्याकरणगत प्रयोग-वैचित्र्य भी उपलब्ध होता है। कर्मवाच्य के वाक्य-प्रयोग में, असमापिका क्रिया के वैचित्र्य का एक उदाहरण द्रष्टव्य है : 'ततो सा मए करतलसंपुडेणं घत्तूण हियए निव्वोदएणं (?) तीए अग्गहत्थे भणिया' (४२. ४), एक ही वाक्य में 'सा' और 'तीए' सार्वनामिक शब्दों या पदों का प्रयोग सचमुच विचित्र है। पुनः कर्मवाच्य के कर्ता के साथ कर्तृवाच्य की क्रिया का प्रयोग-वैचित्र्य भी उपलब्ध होता है। जैसे : 'णाए भणइ य' (२९१.२६)। हिन्दी में 'और' के बाद आनेवाले शब्द के अनुसार भी क्रिया के प्रयोग का अनुशासन प्राप्त होता है। संघदासगणी की प्राकृत में भी यह प्रयोग सुरक्षित है। जैसे: 'पूजिया समणमाहणा, नागरया सयणो य पओसे वीसत्यो भुंजइ (७.८)।' हिन्दी में अर्थ होगा : 'पूजित श्रमण, ब्राह्मण, नागरक (बहुव.) और स्वजन (एकव) सन्ध्या में विश्वस्त भाव से भोजन करता है।'
प्रयोग-वैचित्र्य की दृष्टि से कथाकार द्वारा प्रयुक्त एक ही शब्द की पर्यायमूलक आवृत्ति का भी उल्लेखनीय वैशिष्ट्य है। प्रतीत होता है, अर्थव्यंजना के लिए ही उन्होंने ऐसा प्रयोग किया है। जैसे : 'दोण्हं नतीणं मज्झदेसभाए अत्थि महइमहालिया पत्थरसिला' (४४.९-१०)। यहाँ सिर्फ 'सिला' के प्रयोग से भी अर्थसिद्धि सम्भव थी, किन्तु बहुत बड़ी पत्थर की चट्टान की अर्थव्यंजना के लिए ही कथाकार ने 'प्रस्तर' के साथ ही उसके पर्यायवाची शब्द 'शिला' की आवृत्ति की है। इसी प्रकार के प्रयोग अनेकत्र परिलक्षितव्य हैं। जैसे: ‘पलंबंतकेसरसढं' (४५.७); 'विविहखज्ज