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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा __ आदि में : नाम (पृ.२) निज्जरं (पृ.३); निच्छओ (पृ.४); नयणमणहरं (पृ.५); निग्गओ (पृ.४६); नागरेहिं (पृ.११३); निवारेंति (पृ.१२७); नट्टोवहारेण (पृ.१५६), नदीसोत (पृ.१३४); नगरं (पृ.२२७); नंगलग्गे (पृ.२४१); निद्दा (पृ.२६७); निवसत्तु (पृ.२६९); नाहिलसइ (पृ.२७८), नज्जए (पृ.२७८); नरा (पृ.२६७), निरुबिग्गा (पृ.३१३); निमित्तिणा (पृ.३१७), नहयलं (पृ.३३१), नमो भयवओ (पृ.३३९), नाऊण (पृ.३६८), नेसि (पृ.३६९), नियगभवनमागतो (पृ.३६९) आदि-आदि ।
मध्य में : जलधरनिनादं (पृ.३); जंबुनामेण (पृ.१०) ओहिनाणं (पृ.११); एयनामो (पृ.११); किंनिमित्तं (पृ.४०); सीहनाओ (पृ.५५), अहिनंदंति (पृ.७०); दिट्ठनट्ठो (पृ.८३); सच्चभामानिमित्ते (पृ.९७); अतिसयनाणी (पृ.१८९); वेसानरेण (पृ.२३७); दंडनीईए (पृ.२५७); सीहनंदिया (पृ.३२१), परिनेव्वाणं (पृ.३३७); पव्वयनारदविवाते (पृ.३५७); निययनामंकिओ (पृ.३६५) आदि-आदि।
संयुक्ताक्षरों में शब्द के मध्य और अन्त में भी न का संयुक्त रूप मिलता है। जैसे : दिन्ना, मन्ने, समुप्पन्ना (पृ.११); तन्निमित्तं (पृ.१९); विनवेइ (पृ.१९); पसन्नचंदो (पृ.१९); आसन्नो (पृ.२१), करेणुपरिकिनो (पृ.२३); कप्पाकप्पविहिन्नू (पृ.२५); अनकुंड (पृ.२७); मनिस्सामि (पृ.५७), पुना (पृ.६०); अन्नोन्ननेहाणुराग (पृ. ६५); सव्वन्नू (पृ.११०), सन्निभोरू (पृ.१२३); तिन्नि (पृ.१८४); धनंतरी (पृ.२३७), पडिवन्नो (पृ.२६१); मिच्छत्तसमोच्छन्नेण (पृ.२७९); अन्नमन्त्रसमल्लीणाओ (पृ.२८७); जनदत्ता (पृ.३०); रनो (पृ.६१); दोन्नि (पृ.६२), जनवक्को (पृ.१५१,१५२) आदि-आदि।
१०. वाक्यार्थद्योतक 'इति' के स्थान में स्वरान्त शब्दों के बाद 'त्ति' या सानुस्वार शब्दों के बाद 'ति' का प्रयोग आगमिक अर्द्धमागधी में प्राप्त होता है। 'वसुदेवहिण्डी' में भी अर्द्धमागधी की यह प्रवृत्ति पूर्णतया सुरक्षित है । यद्यपि यह प्रवृत्तिगत भाषिक स्वरूप का उल्लेखनीय निर्णायक तत्त्व नहीं है। कतिपय उदाहरण : ___ अप्पाणं सारक्खमाणी अच्छिय त्ति (पृ.४९); पुण्णो य मे मणोरहो ति (पृ.६६), किं पभायं सुप्पेण छाइज्जइ? त्ति (पृ.७२), अलं जुझेणं ति (पृ.८१) वासुदेवेण भणिया-कह कह? त्तिसच्चभामा भणति—जइ अम्हेहिं भगिणी वंदिया तुझं किं इत्थ वत्तव्वं? ति (पृ.८२); सो मे एयमटुं वागरेहिइ ति (पृ.८४); पणिए कोडिं देहि त्ति (पृ.१०५), जो जुवाणो रूवस्सी सविज्जो माहणो खत्तिओ वा सो मे आणेयव्वो त्ति (पृ.१२१); नत्थि पुरओ, उव्वत्तो मण्णे होहिति त्ति (पृ.१४३) चारुसामि ! चंपागमणूसुओ ममं सुमरसु त्ति (पृ.१५३), देहि मे पडिवयणं ति (पृ.१६५); देव ! कोइ तरुणो रूवस्सी तेयस्सी अद्धाणागतो य इच्छति तुब्भे दटुं ति (पृ.२०५); नत्थि इतो उत्तरीयं ति (पृ.२५५), सामि ! जहा मे दिवसो गतो, जं च मे सुयं समणुभूयं च तं सव्वं सुणेह मि त्ति (पृ.२८३) गब्भगए जणणीए अरो रयणमओ सुमिणे दिट्ठो त्ति (पृ.३४६) आदि-आदि।
११. 'यथा', 'यदि', 'यत्', 'य:' और 'यावत्' शब्दों में 'य' का 'ज' में परिवर्तन जैसी अर्धमागधी की सहज भाषिक प्रवृत्ति 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा में भी विद्यमान है। यथा :
जाव < यावत् (पृ.३); जावज्जीवं< यावज्जीवं (पू.३०); जहा< यथा (पृ.४); जइ< यदि (पृ.४); जो< य: (पृ.५); जहासुतं< यथाश्रुतं (पृ.११), जं< यत् (पृ.४३) आदि।
इसी प्रकार का ध्वनि-परिवर्तन पूरे ग्रन्थ में द्रष्टव्य है । ज्ञातव्य है कि 'यत्' शब्द या यकारान्त सभी शब्दों के सभी रूपों में 'य' का 'ज' में परिवर्तन प्राकृत-भाषा की अपनी सहज प्रवृत्ति है।