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वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व
५११ किन्तु, 'यत्' और 'यदि' के लिए 'जय' (पृ.९२ और १००) रूप भी 'वसुदेवहिण्डी' में प्राप्त होता है। कहना न होगा कि भाषिक प्रयोग-स्वातन्त्र्य 'वसुदेवहिण्डी' की अन्यत्रदुर्लभ वैशिष्ट्य है।
१२. अर्द्धमागधी की भाषिक प्रवृत्ति के समानान्तर 'वसुदेवहिण्डी' में भी 'गृह' शब्द का 'घर', 'हर' और 'गिह' आदेश प्राप्त होते हैं। यथा : __रायगिहं< राजगृहं (पृ.२); भूमिघरं< भूमिगृहं (पृ.४४), भूयघरं< भूतगृहं (पृ.५४), वासघरं< वासगृहं (पृ.७), कयलिलयाजालमोहणघरेसु< कदलीलताजालमोहनगृहेषु (पृ.३५९), आयंसघरं< आदर्शगृहं (पृ.३५४); कस्स इमं घरं< कस्य इदं गृहं ? (पृ.३४); आयरियगिह< आचार्यगृह (पृ.३७), कुलघरं< कुलगृहं (पृ.१२०); लयाहरए< लतागृहे, लतागृहके (पृ.१३७); लयाहरं< लतागृहं (पृ.१३७) आदि-आदि।
१३. अर्द्धमागधी की स्वरभक्ति की प्रवृत्ति 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा में भी उपलब्ध होती है । कतिपय उदाहरण :
__समूसुओ< समुत्सुक: (पृ.१६); गरिहणं< गर्हणं (पृ.१७); आयंबिलं< आचाम्लं (पृ.२५), झियायंतो< ध्यायन्त: (पृ.३४), आचार्य< आयरिय (पृ.३७); इरिया< इर्या (पृ.३९); फरचरियसिक्खा< फलचर्या-शिक्षा (ढाल चलाने की शिक्षा : पृ.५५); निसिरियचलणा< निसर्जितचरणा (पृ.६०), सिरीओ< श्रीक: (पृ.६६); संजायहरिसरोमकूवा< संजातहर्षरोमकूपाः (पृ.७२) किलिस्सइ < क्लिश्यति (पृ.१८१), पुढवी< पृथ्वी (पृ.७३), सुदरिसणा< सुदर्शना (पृ.९०), सुसिलिट्ठसंधी< सुश्लिष्टसन्धि: (पृ.७७); पउमवर< पद्मवर (पृ.७८), फलसिरिं< फलश्रीं (पृ.७९) सिलिट्ठसंठिय< श्लिष्ट-संस्थित (पृ.८०); सिरिघरं< श्रीगृहं (पृ.८२), आरियवेद< आर्यवेद (पृ.१८३), पउमावइ< पद्मावती (पृ.२०४); सुयसिणेहेण< स्मृतस्नेहेन (पृ.२१४), सयपाकसिणेह< शतपाकस्नेह (पृ.२२२), तिरिओ< तिर्यक् (पृ.२५६); केवलिपरियायं< केवलिपर्यायं (पृ.२५७); उवदरिसिया< उपदर्शिता (पृ.२८२), रयणज्झयं< रत्नध्वजं (पृ.३२२), रयणायुहो< रत्नायुधः (पृ.२६०), दंसिओ मे सिणेहो< दर्शितो मे स्नेहः (पृ.२५१); सिरिभूई< श्रीभूति: (पृ.२५३), सिरिमती< श्रीमती (पृ. १७१) आदि-आदि।
१४. अर्धमागधी की एक भाषिक प्रवृत्ति यह भी है कि आचार्य हेमचन्द्र द्वारा बुधादिगण में पठित शब्दों या धकारान्त शब्दों के धकार का हकार आदेश हो जाता है। 'वसुदेवहिण्डी' में यह प्रवृत्ति विद्यमान है। कतिपय शब्द उदाहरणार्थ :
छुहाभिभूओ< क्षुधाभिभूत: (पृ.६), बहुसहिओ< वधूसहित: (पृ.७), महुबिंदु- मधुबिन्दुः (पृ.८); दुविहं< द्विविधं (पृ.१७), बहू-वरं वधू-वरं (पृ.१८); बोही< बोधि (पृ.३८), रुहिरे< रुधिरे (पृ.३९; निरवराही< निरपराध: (पृ.२७०); वह-बंध-बहुले< वध-बन्ध-बहुले (पृ.२७१); वह-बंधनमरणाणि< वध-बन्धन-मरणानि (पृ.२६३), लक्खणवहाय< लक्ष्मणवधाय (पृ.२४५), बुह-विबुहायतणे< बुध-विबुधायतने (पृ.१९५) आदि-आदि ।
१५. 'वसुदेवहिण्डी' में, भाषिक प्रवृत्ति की दृष्टि से, अर्धमागधी के ऐसे शब्द भी प्रचुर परिणाम में उपलब्ध हैं, जिनका महाराष्ट्री में प्राय: अभाव रहता है। कतिपय उदाहरण :