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वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व
५०९ (ठियो-ओ) < स्थितः, पडिलाभितो (पडिलाभियो-ओ) < प्रतिलाभितः; निग्गतो (निग्गयो-ओ) < निर्गत: (पृ.४७) आदि-आदि । यहाँ ज्ञातव्य है कि अतीतकालीन क्त-प्रत्ययान्त क्रियापदों में या फिर 'पुरओ', 'तओ-तयो' आदि अव्ययों में इस प्रकार 'य' का 'त' में परिवर्तन प्रचुरता से प्राप्त होता है। इस सन्दर्भ में गाहितो, ठवितो, ठावितो, आणीतो, पेसितो, पतितो, जातो, निवारितो, भणितो, पुच्छितो, कारितो, मारितो, आगतो, आगता, गतो, उपगतो, मतो, कतो, कतं, चिंतितं, अवधारितं, वंदितो, पव्वतितो, निवेदितं, पच्छादिते, पूजितो, मिलितो, चुतं, अम्हितो, अम्हियोओ< आश्चर्यितः, विस्मित: (पृ.२४८) आदि-आदि । विभिन्न क्रियापदों के तीनों लिंगों तथा ततो, पुरतो आदि अव्ययों के प्रयोगों की सघनता 'वसुदेवहिण्डी' में यत्र-तत्र-सर्वत्र द्रष्टव्य है। इसलिए, यहाँ तदितर विशिष्ट प्रयोगों को ही उपन्यस्त करना समीचीन होगा।
(ख) 'य' की यथास्थिति और 'य' का 'त: मातं (माय) < मातरं (पृ.६०); भयवता (भयवया) < भगवता (पृ.३६८), पतिणो (पइणो) < पत्युः (पृ.३६९); नयणविसयं< नयनविषयं (पृ.३६५), पंचिंदिय< पंचेन्द्रिय (पृ.२७८), हियतेण< हृदयेन (पृ.३२), हियते< हृदये (पृ.२२८), अडवीते (ये-ए< अटव्यां (पृ.४३), चातिओ (चाइयो : य-श्रुतिरहित) < पारित:, शक्तः (पृ.१९५), सुगति(इ) गमण< सुगतिगमन (पृ.१८४), संजतो(यो) < संयत: (पृ.२७३), जत्तातो (यो-ओ) < यात्रात: (पृ.११), भीतो (यो-ओ) < भीत: (पृ.२७३); अतीते (ये) सु< अतीतेषु (पृ.३६६), समंततो (ओ-यो) < समन्तत: (पृ. ३६२) आदि-आदि। 'ते' के स्थान पर 'ए' भी। जैसे : गएसु< गतेषु (३६९), उवागए< उपागते (तत्रैव) आदि।
उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है कि संघदासगणी ने अव्यय और संज्ञापदों में, विशेषतया क्रियापदों में 'य' की जगह 'त' की स्थिति या 'त' को तत्सम रूप में ही छोड़ देने की स्थिति स्वीकार की है। 'य' के स्थान में 'त' की तत्समबहुलता अर्द्धमागधी की विशिष्ट प्रकृति है।
८. अर्द्धमागधी की भाषिक प्रवृत्ति में स्वरमध्यवर्ती व की यथास्थिति होती है, कहीं-कहीं उसका य में या य-श्रुतिरहित 'अ' में भी परिवर्तन होता है। 'वसुदेवहिण्डी' की भाषिक प्रकृति की भी बहुधा यही प्रवृत्ति है। कतिपय उदाहरण द्रष्टव्य हैं :
पवेसिओ< प्रवेशित: (पृ.१०), भवइ< भवति (पृ.१०), पसवणकाल< प्रसवनकाल (पृ.११), जीवा< जीवा: (पृ.१४), देवीसहिओ< देवीसहितो (पृ.१७), समवाओ< समवायः (पृ.१८); उस्सवो< उत्सव: (पृ.१९); सावज्ज< सावधं (पृ.२१), पडिनियत्तस्स< प्रतिनिवर्तितस्य (पृ.११) नियतह< निवर्तस्व (पृ.२१), संवरियदुवारं< संवृतद्वारं (पृ.२१), लायण्ण(त्र) < लावण्य (पृ.२३,२८); सपरिवारस्स< सपरिवारस्य (पृ.२३) तहेव< तथैव (पृ.२४); गतिमणुयत्तमाणी< गतिमनुवर्तमाना (पृ.३५९), परभवे< परभवे (पृ.२६) विहवाणुरूवेणं< विभवानुरूपेण (पृ.२७), नवजोव्वणगुणे< नवयौवनगुणं (पृ.२९; खेत्तनियत्तणं< क्षेत्रनिवर्तनं (पृ.३०), वणदवेण< वनदवेन (पृ.३६); देवया< देवता (पृ.३७), भवणवासिणी भवणवणदेवया< भवनवासिनी भवनवनदेवता (पृ.४१), पयट्टाविओ< प्रवर्तितो (पृ.४५), कूयं (कूव)< कूपं (पृ.५२) परायत्तणकीलियं< परावर्तनकीलकं (पृ.६३) सहाओ (य-श्रुतिरहित) < स्वभावः (पृ.१६४), नियत्तति< निवर्तते (पृ.२४१) आदि-आदि ।
९. अर्द्धमागधी में णत्वविधान का स्वातन्त्र्य उपलब्ध होता है, इसलिए शब्द के आदि, मध्य (अन्त में नहीं) और संयोग में सर्वत्र ण की तरह न भी स्थित रहता है। पूरी 'वसुदेवहिण्डी' में ऐसे भाषिक प्रयोगों का अतिशय प्राचुर्य है। निदर्शन के लिए कतिपय शब्द द्रष्टव्य :